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________________ अध्याय ३ : ६५ उसका आत्म-तेज स्वयं-स्फूर्त हो जाता है । देव भी उस व्यक्ति की निःस्पृहता और निस्तृष्णा से प्रभावित होकर उसका सान्निध्य पाने का प्रयत्न करते हैं। दूसरी बात है कि तप आसक्ति-निवारण और वैराग्य-वृद्धि का महान् हेतु है। ज्यों-ज्यों आसक्ति घटती है, वैराग्य बढ़ता है और ज्यों-ज्यों वैराग्य बढ़ता है मनवाणी और इन्द्रियां पवित्र बनती हैं। इससे आत्माभिमुखता बढ़ती है और आवरण क्षीण होता जाता है। ऐसी स्थिति में आत्म-देव का साक्षात् होता है और तब तपस्वी अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है। उसमें देवत्व-आत्मत्व जाग उठता है और तब उसकी सारी क्रिया आत्मा की परिक्रमा किए चलती है। इस देवत्व को पाना ही मुमुक्षु का चरम लक्ष्य है। अथो यथास्थितं स्वप्नं, क्षिप्रं पश्यति संवृतः। सर्व वा प्रतरत्यौघं, दुःखाच्चापि विमुच्यते ॥३२॥ ३२. संवृत आत्मा यथार्थ स्वप्न को देखता है, संसार के प्रवाह को तर जाता है और दुःख से मुक्त हो जाता है । इम श्लोक में संवृत आत्मा के गुणों का दिग्दर्शन कराया है। आत्म-क्रिया में सतत प्रयत्नशील और सावधान आत्मा को संवृत-आत्मा कहा जाता है। उसकी प्रत्येक क्रिया संयम से अनुस्यूत होती है। वह वास्तव में आत्मद्रष्टा होता है। उसमें मोहजन्य दोष नहीं होते। वह जो कुछ देखता है, करता है, सुनता है, चखता है या चलता है-इन सब क्रियाओं में आत्माभिमुखता होती है। उसके लिए आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञेय है, ध्याता और ध्येय है। उसका देखना, सुनना या कहना अयथार्थ नहीं होता। स्वप्न एक मानसिक क्रिया है । वह दृष्ट, श्रुत या अनुभूत वस्तु का ही आता है । जो कभी देखा, सुना या अनुभव नहीं किया, उसका कभी स्वप्न नहीं आता। स्वप्न संकलनात्मक ज्ञान है। वह सबका यथार्थ नहीं होता। जिसके मन, वाणी और अध्यवसाय पवित्र हैं, जो संवृत-आत्मा है, उसके स्वप्न सदा यथार्थ होते हैं। स्वप्न की अयथार्थता के अनेक हेतु हैं। उनमें प्रमुख ये हैं : दुश्चिन्ता, अनिद्रा, मानसिक मलिनता, आसक्ति, अस्वस्थता आदि। पंचतंत्र में बताया है : व्याधितेन सशोकेन, चिन्ताग्रस्तेन जन्तुना। ___ कामार्त्तनाथ मत्तेन, दृष्ट: स्वप्नो निरर्थकः ॥ -रोगी, शोकाकुल, चिन्ताग्रस्त, कामात और मत्त व्यक्तियों के स्वप्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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