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६४ : सम्बोधि
प्रान्तानि भजमानस्य, विविक्तं शयनासनम् । अल्पाहारस्य दान्तस्य, दर्शयन्ति सुरा निजम् ॥३१॥
३१. जो निस्सार भोजन, एकान्त वसति, एकान्त आसन और अल्पाहार का सेवन करता है और जो इन्द्रियों का दमन करता है, उसके सम्मुख देव अपने आप को प्रकट करते हैं ।
स्थानांग सूत्र में बताया गया है कि देव मनुष्यलोक में चार कारणों से आते हैं । वे कारण ये हैं :
१. मुमुक्षु के दर्शन करने के लिए। २. तपस्वी के दर्शन करने के लिए। ३. कुटुम्बियों से मिलने के लिए। ४. अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने मित्रों को प्रतिबोध देने के लिए।
इन कारणों में एक कारण है-मुमुक्षु के दर्शन करना । यह अन्यान्य कारणों में एक प्रमुख कारण है। देव स्वभावतः विलासप्रिय होते हैं। वहां का द्रव्य , क्षेत्र, काल और भाव विलास की ओर प्रेरित करता है। उनकी अपार ऋद्धि, वैभव और सुख-सुविधायें उन्हें विरति की ओर जाने के लिए कभी प्रेरित नहीं करतीं। ज्यों-ज्यों उपभोग सामग्री की अधिकता होती है, त्यों-त्यों लालसा भी बढ़ती है। पदार्थों के भोग से लालसा तृप्त नहीं होती, वह निरंतर बढ़ती है। यह एक सामान्य तथ्य है। परंतु ज्यों-ज्यों ऊपर जाते हैं, देव वितृष्ण और निष्कषाय होते जाते हैं और सर्वार्थसिद्ध विमानों के देव तो अत्यन्त निःस्पृह और अकषाय होते हैं। अपार संपत्ति, अटूट वैभव भी उन्हें अपने पाश में नहीं बांध सकता। ___ जो व्यक्ति निःसार भोजन करता है, एकान्तवास का सेवन करता है, मिताहारी और दान्त है, वह वास्तव में महान तपस्वी है । तपस्या से आत्म-शक्ति को पोषण मिलता है और उसका तेज सारे वातावरण को प्रभावित करता है । तपस्या का अर्थ शरीर को तपाना ही नहीं ; मन, वाणी और इन्द्रियों को तपाना है। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है- "कोरा शरीर तपता है, तब अहं बढ़ता है। शरीर और इन्द्रियां-दोनों तपते हैं, तब संयम बढ़ता है। शरीर, इन्द्रिय और मन–तीनों तपते हैं, तब आत्मा का द्वार खुलता है। शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि-चारों तपते हैं, तब आत्मा का साक्षात् होता है।" जो व्यक्ति ऐसी तपस्या में लीन है, वह देवों द्वारा नमस्कृत होता है। इस श्लोक में बताया गया है कि'तपस्वी के पास देव अपने आपको प्रकट करते हैं'-इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक तो यह कि तपस्वी जीवन जीनेवाला व्यक्ति निःस्पृह और निस्तृष्ण होता है ।
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