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________________ ६६ : सम्बोधि अयथार्थ होते हैं। सर्वकामविरक्तस्य, क्षमतो भयभैरवम् । अवधिर्जायते ज्ञानं, संयतस्य तपस्विनः ॥३३॥ ३३. जो सब कामों से विरक्त है, जो भयानक शब्दों, अट्टहासों और परिषहों को सहन करता है, जो संयत और तपस्वी है, उसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। ___ जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान पांच हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान, और केवल ज्ञान। इनमें पहले दो ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष हैं और शेष तीन आत्मसापेक्ष । इनको परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान भी कहा जाता है। अवधिज्ञान आत्मसापेक्ष है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसका अर्थ है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन मर्यादाओं से रूपी द्रव्यों का ज्ञान करना। प्रज्ञापना सूत्र में इसके विविध प्रकारों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। कर्म क्या है ? कर्म और उनके निरोध का उपाय आवारका अन्तरायकारकाश्च विकारकाः । प्रियाप्रियनिदानानि, पुद्गलाः कर्मसंज्ञिताः ॥३४॥ ३४. पुद्गल आत्मा (ज्ञान-दर्शन) को आवृत्त करते हैं, आत्मशक्ति में विघ्न डालते हैं-नष्ट करते हैं, आत्मा को विकृत करते हैं और प्रिय और अप्रिय में निमित्त बनते हैं, वे 'कर्म' कहलाते हैं। जीवस्य परिणामेन, अशुभेन शुभेन च । संगृहीताः पुद्गला हि, कर्म रूपं भजन्त्यलम् ॥३५॥ ३५. जीव के शुभ और अशुभ परिणाम से जो पुद्गल संगृहीत होते हैं वे 'कर्म' रूप में परिणत हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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