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________________ 90 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी : हम समाज के इतिहास को देखें। मनुष्य जगत और वनस्पति जगत दोनों साथ-साथ जीते रहे हैं। मनुष्य पहले जंगलों में वृक्षों के बीच रहता था। आजकल अधिकांश लोग शहरों में रहना पसन्द करते हैं। हमने देखा-शहरों में बड़ी-बड़ी कोठियां बनी हुई हैं, किन्तु उनके चारों ओर छोटे-छोटे उद्यान लगे हुए हैं। प्रश्न हो सकता है-कोठी के सामने बगीचा क्यों? ऐसा लगता है-आदमी ने जंगल को छोड़ा, गाँव बसाया। उसका गाँव में मन नहीं लगा इसलिए उसे गाँव में पुनः जंगल बनाना पड़ा। वस्तुतः पेड़ के बिना आदमी का मन ही नहीं लगता। एक व्यक्ति को कविता बनाना है। यदि पेड़ के नीचे बैठ जाए तो अपने आप कल्पना आने लग जाएगी। पेड़ के नीचे कागज-कलम लेकर लिखना शुरू करें, कहानी बन जाएगी। जब हरा-भरा फल-फूलों से लदा हुआ वृक्ष आँखों को दिखाई देता है तो एक सूखा आदमी भी सजल बन जाता है, सरस बन जाता है। वनस्पति हमारी प्राणशक्ति का मुख्य आधार है। किसी व्यक्ति को कुछ देर के लिए काल-कोठरी में बन्द कर दिया जाए तो उसका दम घुटने लग जाएगा। जब व्यक्ति प्रातःकाल उद्यान में भ्रमण के लिए जाता है, तब उसके तन, मन और भाव-सब स्वस्थ बन जाते हैं। मनुष्य जगत और वनस्पति जगत का इतना गहरा सम्बन्ध रहा है, फिर भी मनुष्य के मन में उसके प्रति करुणा का अभाव बना हुआ है। मनुष्य के मन में एक क्रूरता छिपी हुई है। जिस वनस्पति जगत से वह इतना कुछ पा रहा है, उसके प्रति जो करुणा, कोमलता, सहृदयता, हमदर्दी और भाईचारा होना चाहिए, वह उसके मन में नहीं है। जो जीवन के साथी हैं, जीवन देने वाले हैं, उनके प्रति भी दयालुता नहीं है। यह एक विडम्बना है। भगवान महावीर ने वनस्पति और मनुष्य की जो समानताएं प्रस्तुत की हैं, उन्हें आज विज्ञान प्रमाणित कर चुका है। महावीर की भाषा में मनुष्य और वनस्पति की समानता का रूप यह हैमनुष्य वनस्पति मनुष्य जन्मता है। वनस्पति भी जन्मती है। मनुष्य बढ़ता है। वनस्पति भी बढ़ती है। मनुष्य चैतन्ययुक्त है। वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। मनुष्य छिन्न होने पर वनस्पति भी छिन्न होने पर क्लान्त होता है। क्लान्त होती है। मनुष्य आहार करता है। वनस्पति भी आहार करती है। पलान्त हाता है । क्लान्त हाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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