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________________ पर्यावरण 89 सबके पीछे जो चर्चा होनी चाएि, वह नहीं हो रही है। इन सबके मूल में असंयम है और उसे कम करने की चर्चा बहुत कम चलती है। केवल कुछ प्रक्षेपास्त्रों को कम करने से निःशस्त्रीकरण की बात सम्भव नहीं बनेगी। एक शासक शस्त्रों को कम करने की बात करता है तो दूसरा शासक शस्त्रों को बढ़ाने की बात करता है। जब तक असंयम को कम करने की ओर मनुष्य समाज का ध्यान आकर्षित नहीं होगा तब तकनिःशस्त्रीकरण की बात सफल नहीं बन पाएगी। भगवान महावीर ने भाव-शस्त्र पर, असंयम पर बहत बल दिया। उन्होंने कहा-मूल जड़ को पकड़ो, असंयम को कम करो। असंयम कम होगा तो बन्दूकें, तोपें, तलवारें मनुष्य के लिए खतरनाक नहीं बनेंगी। मनुष्य और वनस्पति __मनुष्य और वनस्पति-दोनों हमसाथी हैं। वनस्पति के बिना मनुष्य का जीवन सम्भव नहीं है किन्तु मनुष्य के बिना वनस्पति का जीवन सम्भव हो सकता है। हम आदिम युग को देखें, यौगलिक युग को देखें। उस समय जीवन की सारी आवश्यकताएं कल्पवृक्ष पर निर्भर थीं। वह प्रत्येक कल्पना को पूरा करने वाला वृक्ष था। यौगलिक जीवों की अपेक्षाएं--भोजन, वस्त्र आदि कल्पवृक्ष से पूरी होतीं। मकान, आभूषण, मनोरंजन के साधन, शृंगार, साज-सज्जा, रहन-सहन, सब कुछ कल्पवृक्ष पर आश्रित था। कल्पवृक्ष के बिना यौगलिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यौगलिक युग के बाद मनुष्य ने साथ-साथ रहना सीखा, गाँव बसाना सीखा, मकान बनाना सीखा, खेती करना सीखा। पहले कल्पवृक्ष ही उनका मकान था। यौगलिक युग के अन्तिम समय में पहला मकान बना। मकान का नाम था अगार। पहला मकान लकड़ी से बना। अग-वृक्ष से बना इसलिए मकान का नाम अगार हो गया। उस समय न ईंटें थीं, न चूना था। पूरा मकान लकड़ी से निर्मित हुआ। जीवन की आवश्यकताएं बढ़ीं। मनुष्य ने कपड़ा बनाना शुरू किया। पहला कपड़ा रुई से बना। उसका प्रणयन भी वनस्पति जगत पर आधृत था। खाने की पूर्ति का स्रोत भी वनस्पति जगत था। उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य ने कृषि-खेती करना प्रारम्भ कर दिया। एक अंतर आ गया-केवल कल्पवृक्ष पर जो निर्भरता थी, वह उससे हटकर वनस्पति जगत पर निर्भर बन गई। प्रवृत्ति का विस्तार होता चला गया। मकान और वस्त्र बनने लगे, फसलें उगने लगीं। जीवन का एक नया दौर शुरू हो गया, किन्तु सब कुछ वनस्पति जगत पर निर्भर बना रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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