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________________ 60 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ? में लगे हुए थे और हैं । वैज्ञानिक आदमी भी पूरा सामाजिक जीवन नहीं जीता। उसकी दुनिया समाज से हटकर कुछ अलग-सी हो जाती है । वैयक्तिक जीवन भी पूरा नहीं होता । उसे अपना भी भान नहीं रहता । जब सत्य की खोज में गहरी निष्ठा जागती है तब शरीर और शरीर को पोषण देने वाला भोजन भी गौण हो जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि खाया या नहीं खाया। बात अटपटी-सी लगती है, विश्वास करना भी कठिन होता है । किन्तु जब चेतना किसी दूसरी दिशा में प्रस्थित होती है और उसकी गहराई में जाती है तो यह बात भी संभव हो जाती है कि भोजन का भी पता न चले और नींद का भी पता न चले । सत्य का शोधक अध्यात्म के क्षेत्र में यात्रा करता है, वह इतना कम खाता है कि दूसरे लोग सोचते हैं, यह तो शरीर को सता रहा है, किन्तु उसकी खाने के प्रति जो एक आकांक्षा होती है, वह कम हो जाती है। वहां मात्र जीवन-यात्रा का निर्वाह बचता है । सब लोग जीवन-यात्रा को चलाने के लिए नहीं खाते, दूसरे उद्देश्य से खाते हैं, आकांक्षा से खाते हैं । सत्य शोधक की आकांक्षा समाप्त हो जाती है । आकांक्षा से खाने वाले को एक बड़ी मात्रा की जरूरत होती है । आकांक्षा को छोड़कर खाने वाले को बहुत थोड़ी मात्रा की जरूरत होती है । पोषण थोड़ी मात्रा से भी हो सकता है । हम जितना खाते हैं, पोषण के लिए नहीं खाते, किन्तु आदतवश खाते हैं। एक आदत बना लेते हैं और आदत को पूरा करने के लिए खाते हैं । वैयक्तिक साधना के लोग संकरी पगडंडी पर चलते हैं, फिर वह चाहे वैज्ञानिक हो, चाहे अध्यात्म का साधक हो या ध्यान की आराधना करने वाला हो। ऐसा मार्ग कुछ लोग चुनते हैं। उतनी तितिक्षा, उतनी तपस्या हर व्यक्ति में नहीं होती कि उस मार्ग को चुने । सामान्य आदमी सामाजिक जीवन ही जीएगा। जीवन में जो कुछ है, वह करेगा । ध्यान साधना की एक पद्धति है वैयक्तिक और दूसरी है सामुदायिक । जीवन विज्ञान की पद्धति मुख्यतः सामाजिक पद्धति है, क्योंकि वह सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाली है । ध्यान सामुदायिक हो या वैयक्तिक, आखिर सत्य की खोज का मार्ग तो है ही । सत्य की खोज की जिज्ञासा न जागे तो ध्यान की रुचि ही पैदा नहीं होगी । जब अज्ञात को ज्ञात करने की भावना जागती है, अपने भीतर क्या है, यह जानने की भावना जागती है, अपने भाग्य को जानने और उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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