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________________ स्वस्थ समाज रचना 59 हो। हमारी कल्पना तो चलती है राम-राज्य की और कार्य चलता है रावण-राज्य का। संगति कैसे हो? इन विसंगतियों में जीते हुए हम मूल्यों का विकास नहीं कर सकते। यदि सचमुच हमारी आस्था है मूल्यों का विकास करना, सामाजिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करना तो हमें पानी वहीं सींचना होगा जिससे मूल्यों का विकास संभव बन सके। आज हिंसा के पीछे जितनी मानवीय शक्ति खर्च हो रही है, उसका एक प्रतिशत भाग भी अहिंसा के पीछे खर्च नहीं हो रहा है। बड़े आश्चर्य की बात है। हमारी दुहाई है अहिंसा की और सारी शक्ति का नियोजन हो रहा है हिंसा के पीछे। क्या यह विरोधाभास नहीं है? हर आदमी शान्ति से रहना चाहता है और उसकी सारी प्रवृत्तियां अशान्ति को सिंचन दे रही हैं। क्या यह विरोधाभास नहीं है? यह सब क्यों हो रहा है? इसलिए कि बचपन से ही संस्कार दूसरे प्रकार के बने हुए हैं। जब संस्कार रूढ़ हो जाते हैं, अर्जित आदतें रूढ़ बन जाती हैं तब उन्हें तोड़ना हर किसी के बस की बात नहीं होती। कुछ व्यक्ति अपवाद हो सकते हैं कि जो बड़ी अवस्था में भी आमूलचूल बदल सकते हैं, अपनी आदतों को बदल देते हैं, अपने संस्कारों में भी परिवर्तन ला देते हैं। किन्तु यह एक विशेष घटना है। जबकि संभावना यह है कि छोटी अवस्था में अभिलषित आदत का निर्माण किया जा सकता है, वह बहुत संभव है। इसलिए शिक्षा के साथ इसकी बहुत संगति बैठती है कि प्रारम्भ काल से ही बच्चों में वैसी आस्थाओं का निर्माण किया जाए, जिनकी अपेक्षा समाज रखता है और जिन्हें हम सामाजिक मूल्य के रूप में विकसित करना चाहते हैं। जीवन की दो पद्धतियां जीवन की दो पद्धितियां हैं-वैयक्तिक जीवन पद्धति और सामाजिक जीवन पद्धति। दोनों साथ-साथ चलती हैं। कोई भी व्यक्ति सोलह आना सामाजिक नहीं होता और कोई भी व्यक्ति सोलह आना वैयक्तिक नहीं होता। प्रधानता की अपेक्षा से वैयक्तिक प्रणाली और सामाजिक प्रणाली-ये दो विभाग हैं। अधिकांश लोग सामाजिक जीवन जीते हैं। साधना की पद्धति भी सामाजिक बनी हुई है। कुछ लोग वैयक्तिक साधना करते हैं। कहीं दूर-दराज की गुफाओं में, कंदराओं में चले जाते हैं। वहां जो कुछ मिलता है, उससे जीवन चला लेते हैं और वहीं एकांत में रहते हैं। वैसे लोग बहुत कम होते हैं। सत्य की प्रबल जिज्ञासा सब लोगों में नहीं जागती। वैज्ञानिक लोग सत्य की खोज में लगे हुए हैं तो अध्यात्म के साधक भी सत्य की खोज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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