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________________ स्वस्थ समाज रचना बदलने की जिज्ञासा भी पैदा होती है, तब कहीं मनुष्य ध्यान के मार्ग में प्रवृत्त होता है। __ यदि ध्यान के द्वारा कोई शक्ति नहीं जागी, जीवन की कोई रेखा नहीं बदली, पुरानी रेखा नहीं मिटी और नई रेखा नहीं खींची गई तो फिर लोग नहीं समझेंगे ध्यान का मूल्य। ध्यान करने वाला भी पूरा मूल्य नहीं समझ पाएगा। प्रत्येक प्रवृत्ति की कसौटी समाज में होती है, मूल्यांकन समाज में होता है। वैयक्तिक मूल्य नहीं होता, वैयक्तिक कसौटी नहीं होती। ध्यान के द्वारा कुछ बदलना चाहिए। जीवन विज्ञान की पद्धति वैज्ञानिक इस अर्थ में है कि अंधेरी कोठरी में ढेला फेंकने की बात इसमें नहीं है। पूरे विज्ञान के साथ यह चलती है। कारण और परिणाम-दोनों का स्थान इसमें है। इस आदत का कारण क्या है और इसका परिणाम क्या है? इसके बदलने का हेतु क्या है? और इसकी प्रक्रिया क्या है? यह सब बहुत स्पष्ट है गणित की भाँति । शरीर-विज्ञान को जानने वाला, मानव विज्ञान को जानने वाला इस सचाई को बहुत जल्दी पकड़ लेता है, उसकी समझ में आ जाता है कि हमारे शरीर में जो विशिष्ट केन्द्र हैं चेतना के, उनका फंक्शन क्या है? उनका परिणाम क्या है? यह बात तो शरीरविज्ञानी जानता है किन्तु ध्यान के द्वारा फंक्शन कैसे बदलता है और उसका परिणाम क्या होता है, यह शरीरविज्ञानी नहीं जानता। ये दोनों बातें जुड़ जाएं तो सामाजिक जीवन की पद्धति बदल सकती है। अभी अधूरी-अधूरी बात चल रही है, इसलिए आज अपेक्षा है कि सामाजिक शिक्षा के साथ अध्यात्म की शिक्षा जुड़े और सामाजिक जीवन प्रणाली के साथ अध्यात्म की जीवन प्रणाली जुड़े। दोनों का योग होने पर ही नई चेतना जाग सकती है, चेतना का रूपान्तरण हो सकता है। चेतना के रूपान्तरण के बिना सामाजिक स्थितियां नहीं बदलतीं। हमारी चेतना जब बदलती है तब व्यवहार बदल जाता है। धर्म ने अहिंसा पर, अपरिग्रह पर बल दिया। इतना बल देने पर भी अहिंसा का विकास जितना होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ। एक प्रश्न है क्यों नहीं हुआ? हजारों वर्षों की लम्बी परम्परा में इतना प्रयत्न करने पर भी ऐसा क्यों नहीं हुआ? कारण एक ही मालूम पड़ता है कि जीवन में अहिंसा उतरती है चेतना के बदल जाने पर । जीवन में अपरिग्रह उतरता है चेतना का रूपान्तरण हो जाने पर। चेतना तो मूल स्थिति में है। जितना ममत्व चित्त में चाहिए, जितनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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