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________________ स्वस्थ समाज रचना 57 प्रेम और मैत्री का विकास अहिंसा का दूसरा सूत्र है प्रेम या मैत्री का विकास । हिंसा का मूल है घृणा । जब तक घृणा पैदा नहीं होती, आदमी हिंसा कर नहीं सकता । लड़ना होता है, युद्ध करना होता है तो सामने वाले के प्रति घृणा पैदा की जाती है । यदि यहूदी जाति के प्रति घृणा पैदा नहीं की जाती तो लाखों यहूदियों को बिना मौत नहीं मारा जाता। पहले घृणा पैदा की जाती है फिर हिंसा जाती है। आज भी जितना आतंकवाद का प्रशिक्षण मिलता है, घृणा को उद्दीप्त करने वाला मिलता है। प्रशिक्षण में सामने वाली जाति के प्रति इतनी घृणा भर दी जाती है कि फिर उसे मारने में कोई संकोच नहीं होता । घृणा हिंसा का बहुत बड़ा कारण है । उसे बदलना और उसके स्थान पर प्रेम उत्पन्न करना अत्यन्त आवश्यक है। प्रेम उत्पन्न होने पर फिर कोई किसी को सता नहीं सकता । । एक चोर या डाकू अपनी पत्नी के गहने नहीं चुराता, घर वालों को कभी नहीं लूटता । मिलावट करने वाला व्यापारी अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को खराब चीज खिलाना नहीं चाहता । वह दूसरों को मिलावटी माल बेचता है और स्वयं शुद्ध लेना चाहता है । कारण स्पष्ट है कि उसका परिवार के प्रति प्रेम है। जहां प्रेम है वहां क्रूर व्यवहार हो नहीं सकता । यदि चोर या sia क्रूर ही होते तो उनका परिवार बनता ही नहीं, किन्तु वे अपने परिवार के प्रति बड़े दयालु, बड़े प्रेमालु होते हैं । प्रेम की बहुत अधिक महिमा गाई हमारे सन्तों ने । कबीर ने यहां तक लिखा पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय | ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।। आज समस्या यही है कि शिक्षा के साथ संवेदनशीलता, प्रेम, मैत्री या करुणा के विकास की बात जुड़ी हुई नहीं है। केवल शिक्षा या पढ़ाई से ही. यह बात आने वाली भी नहीं है । प्रेम के जो केन्द्र हैं शरीर में, जब तक उनको नहीं छुआ जाता, करुणा के केन्द्रों को नहीं छुआ जाता, तब तक वे विकसित नहीं होते । घृणा के केन्द्र भी हमारे मस्तिष्क में हैं। दोनों विद्यमान हैं। जिसको बल मिलेगा, वह पुष्ट हो जाएगा। जिसको बल नहीं मिलेगा, वह कमजोर हो जाएगा । दो लड़के हैं । जिस लड़के को प्यार मिलेगा, वह अच्छा बन जाएगा और जिसको तिरस्कार मिलेगा, वह सूख जाएगा। जिस पौधे को प्यार मिलेगा, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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