SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी? कर नहीं पाते। हमें आस्था को दृढ बनाना है और उसके लिए भावना का परिवर्तन आवश्यक है। शिक्षा के साथ इस संस्कार को पुष्ट किया जाए कि सब जीव समान हैं। सब जीव समान हैं-यह बात भी एक अमूर्त बन जाती है। मूर्त बात, सगुण भाषा ज्यादा प्रभावशाली बनती है। अमूर्त बात कभी-कभी कमजोर बन जाती है। इस आधार पर एक सिद्धान्त विकसित किया गया कि सब जीवों की बात हम छोड़ दें पर कम से कम जो हमारे सामने हैं, हमारे जैसे हैं, उनके प्रति तो यह भाव विकसित करें कि मानव जाति एक है। दूसरा मनुष्य वैसा ही है जैसा मैं हूं और जैसा मैं हूं, वैसा ही दूसरा मनुष्य है। इतनी आस्था उत्पन्न हो जाए तो मानवीय व्यवहार बदल जाए और यह बचपन में ज्यादा संभव है, क्योंकि इस अवस्था तक दूसरे संस्कार हावी नहीं होते, प्रभावी नहीं बनते। जैसा प्रारंभिक पाठ मिलेगा, विद्यार्थी उसे जल्दी पकड़ेगा। समाजशास्त्र के अनुसार जिन मालिकों और दासों में मानवीय स्तर पर चिन्तन हुआ और संबंध स्थापित हुए, उनका व्यवहार बदल गया। एक बड़ी क्रूर कहानी रही है इतिहास की। मालिकों ने अपने दासों पर इतने क्रूर अत्याचार किए हैं कि उनको मानव नहीं माना जा सकता। मालिक मानो मनुष्य हो और दास जैसे उसका पशु हो। पशु के प्रति भी उतने अत्याचार या क्रूर व्यवहार नहीं किए जाते किन्तु मनुष्य के प्रति किए गए हैं और इतिहास की हजारों-हजारों घटनाएं इस तथ्य की साक्षी हैं। आज भी देखते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है। आदमी कुछ अर्थों में आदमी से ज्यादा पशु को मूल्य देता है। क्योंकि उसकी उपयोगिता मानता है। वहां उसका अपना स्वार्थ है । एक घोड़ा सुविधा के साथ रहता है। उसका स्थान है वातानुकूलित गृह । उसकी सेवा में पाँच-पाँच, दस-दस नौकर हैं। घोड़े पर जितना खर्च हो रहा है उतना उसके परिचालकों पर नहीं हो रहा है, क्योंकि घोड़ा ज्यादा उपयोगी है। एक रेस का घोड़ा लाखों रुपये और लाखों डालर पैदा कर देता है, जबकि आदमी इसका एक तुच्छ अंश भी लाभ नहीं देता। आदमी की सारी दृष्टि उपयोगिता पर, स्वार्थ पर और लाभांश पर टिकी हुई है, मानवीय स्तर पर टिकी हुई नहीं है। मानवीय व्यवहार के लिए सबसे प्रथम बात है कि मनुष्य जाति की एकता में आस्था उत्पन्न हो। ऐसा होने पर क्रूर व्यवहार करना कठिन हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy