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________________ 52 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी? के नियम को जानता है। बाहर या भीतर, अपना या पराया-दोनों के लिए नियम समान हैं, इस बात को जानें तो व्यवहार बदल जाएगा। वर्तमान समस्या यह है-व्यक्ति की दृष्टि में अपने एवं अपने परिवार के लिए नियम दूसरा होता है और दूसरे लोगों के लिए नियम कोई दूसरा होता है। आज जितना मिलावट का धन्धा चलता है, वह दूसरों के लिए है। अपने लोगों के लिए नहीं है। इसका कारण है-व्यक्ति आत्म-तुला के सिद्धान्त को नहीं जानता। इस तुला का अन्वेषण नहीं करता। बहुत कठिन है निरीक्षण करना, अन्वेषण करना। आदमी शार्टकट से जाना चाहता है। आज राजपथ इतने संकरे हो गये हैं कि उसे पगडंडी का चुनाव करना पड़ रहा है। इससे समस्या पैदा हो गई और आत्म-तुला का सिद्धान्त जटिल बन गया। दूसरों की बात छोड़ दें, धार्मिक लोग भी इस सिद्धान्त का प्रयोग नहीं करते। अगर धार्मिक लोग इस तुला का प्रयोग करते तो आज मानवीय सम्बन्धों में परिवर्तन आ जाता। आज की सबसे बड़ी समस्या है मानवीय सम्बन्धों में तनाव और संघर्ष। पुरानी पीढ़ी के लोग अनपढ़ थे, सहन करना जानते थे किन्तु आज लोगों की समझ बहुत बढ़ी है इसलिए उनमें संवदेनशीलता भी बढ़ी है। संवदेनशीलता के कारण आपसी संबंधों में तनाव और संघर्ष के स्फुलिंग उछलते रहते हैं। . भगवान महावीर ने आत्म-तुला के सिद्धान्त का व्यवहार के संदर्भ में प्रतिपादन किया। जैन श्रावक की आचार-संहिता आत्म-तुला के सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप है। श्रावक की आचार-संहिता का एक नियम है-मैं अपने आश्रित प्राणी की आजीविका का विच्छेद नहीं करूंगा। चाहे वह नौकर है, कर्मचारी है या पशु है। जो आश्रित है, वह उसकी आजीविका का विच्छेद नहीं कर सकता। आज शोषण की समस्या गम्भीर है। यह स्वर उभर रहा है-शोषण नहीं होना चाहिए, श्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए। यदि हम अतीत को पढ़ें तो हमारा निष्कर्ष होगा-शोषण का विरोध सबसे पहले भगवान महावीर ने किया। महावीर ने कहा, किसी के भक्तपान का विच्छेद मत करो। जो व्यक्ति जिसे पाने का हकदार है, उसे तुम मत छीनो। वह श्रम करता है और तुम उसका हक छीन लेते हो, यह न्याय नहीं है। शोषण के परिहार का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है आत्म-तुला का सिद्धान्त । किसी की आजीविका मत छीनो, किसी का शोषण मत करो। यदि इस सिद्धान्त पर अमल होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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