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________________ स्वस्थ समाज रचना 51 आत्म-तुला का सिद्धान्त महावीर को एक दिन में ही यह पता नहीं चला-जैसे मुझे सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सामने वाले प्राणी को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय होता है। सतत निरीक्षण और अन्वेषण से महावीर ने इस नियम का पता लगाया और आत्म-तुला के सिद्धान्त की स्थापना हो गई। महावीर ने कहा-'ऐसे ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं-हमें दूसरों से क्या? हमें अपना देखना है। हम किस-किसकी चिन्ता करेंगे?' वे दूसरों की चिन्ता नहीं करते; नौकरों. कर्मचारियों और शूद्रों की चिन्ता नहीं करते; पशु-पक्षी और सामान्य प्राणियों की चिन्ता नहीं करते। मध्यकाल में स्त्रियों के लिए तो ऐसे कड़े नियम बना दिए गए, जिनमें क्रूरता ही क्रूरता झलकती है। कारण यही रहा-आत्म-तुला के इस नियम को समझा नहीं गया। भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त को उदाहरण की भाषा में समझाया-पचास आदमी बैठे हैं। एक सिगड़ी में अंगारे जल रहे हैं। मुखिया व्यक्ति ने एक व्यक्ति से कहा-अंगार-पात्र उठाकर अमुक व्यक्ति के हाथ में रख दो। वह व्यक्ति संडासी से अंगार-पात्र उठाकर दूसरे व्यक्ति के हाथ में रखेगा। वह सोचता है-यदि मैं अपने हाथ से अंगार-पात्र उठाऊंगा तो मेरा हाथ जल जाएगा; किन्तु वह यह नहीं सोचता-हाथ से अंगार-पात्र उठाने से मेरा हाथ जलता है तो अंगार-पात्र उठाकर दूसरे के हाथ में रखूगा तो उसका भी हाथ जल सकता है। उसका हाथ भी मेरे जैसा ही है। जिस व्यक्ति में ऐसा चिन्तन जागता है वह दूसरे के हाथ पर अंगार-पात्र नहीं रख पाएगा। स्वयं संडासी से अंगार-पात्र उठाए और दूसरा उसे हाथ में ले, यह न्याय या आत्म-तुला की बात नहीं है, पक्षपात और विषमता की बात है। आदमी अपने लिए सुख चाहता है पर दूसरे की कठिनाई को नहीं समझता। वह इस नियम को नहीं जानता-मुझ पर कुछ होता है तो क्या बीतती है? सामने वाले व्यक्ति पर वैसा ही बीतता होगा। हम सामने वाले प्राणी के विषय में सोचें । चाहे वह मनुष्य है, गाय है, घोड़ा है, कुत्ता है, वनस्पति या मिट्टी है। हम इस बात पर ध्यान दें-यदि मैं इस स्थान पर होता तो मुझ पर क्या बीतती? यदि यह नियम समझ में आ जाए, आत्मसात् हो जाए तो आदमी का सारा व्यवहार बदल जाए। यह आत्म-तुला का सिद्धान्त हमारे समूचे व्यवहार के परिवर्तन का सिद्धान्त है। जो अपने अध्यात्म के नियम को जानता है, वह बाहर के नियम को जानता है और जो बाहर के नियम को जानता है, वह अपने अध्यात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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