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स्वस्थ समाज रचना
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तो हड़तालें नहीं होती, मिलें बंद नहीं होतीं। अहिंसा के माध्यम से मानवीय चेतना को जगाने का जितना काम महावीर ने किया, उतना किसी ने किया या नहीं, यह आज भी अनुसंधान का विषय है। आचारांग सूत्र में अहिंसक समाज-रचना के सूत्र भरे पड़े हैं। क्रांति ग्रन्थ है आचारांग। उसका एक सूत्र है-आदमी तराजू के पल्ले में अपने को बिठाए, दूसरे पल्ले में सामने वाले प्राणी को बिठाए और दोनों को समदृष्टि से तोले, आत्म-तुला का अन्वेषण करे। महावीर के शब्दों में यही सच्ची खोज और अन्वेषणा है। समाज-रचना के आधार
__अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह-ये तीन समाज-रचना के आधार हैं और ये तीन सामाजिक मूल्य हैं। अहिंसा के बिना समाज बनता नहीं। सत्य के बिना भी समाज नहीं बनता और अपरिग्रह के बिना भी समाज नहीं बनता।
पहला आधार है-अहिंसा। अहिंसा का पहला तत्त्व है-भावना का परिवर्तन । हिंसा के अनेक कारण हैं। उनमें एक बड़ा कारण है-भावना, एक प्रकार की धारणा कान्यास ।आदमी आदमी को आदमी नहीं मान रहा है-यह एक भावना है। जब तक इस भावना का परिवर्तन नहीं होता तब तक सामाजिक मूल्यों का विकास नहीं हो सकता।
___ अध्यात्म के आचार्यों ने इस भावना-परिवर्तन के लिए कुछ शब्द दिएआत्मौपम्य, आत्म-तुला, सब जीव समान । ये शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण और गंभीर अर्थ की सूचना देने वाले हैं। इस भावना के अभाव में जातीय विद्वेष पनपा, सांप्रदायिक विद्वेष पनपा और राज्य का सीमागत विद्वेष पनपा। यदि यह भावना विकसित होती कि सब जीव समान हैं, मेरी आत्मा के जैसी ही है दूसरे की आत्मा, जैसी सुख-दुःख की अनुभूति मुझे होती है, वैसी ही सामने वाले व्यक्ति को होती है तो यह जातीय और साम्प्रदायिक आक्रोश-विद्वेष कभी नहीं पनप पाता।
वर्तमान स्थिति क्या है? एक काला आदमी है और दूसरा गोरा आदमी है। आदमी आदमी है, केवल चमड़ी के रंग का अन्तर है। किन्तु गोरा आदमी अपने आपको श्रेष्ठ मान रहा है और काले आदमी को नीच मान रहा है। एक सवर्ण है, दूसरा असवर्ण है। सवर्ण अपने आपको श्रेष्ठ मान रहा है और असवर्ण को नीच मान रहा है। यह रंग के आधार पर विद्वेष, धारणाओं के आधार पर विद्वेष है। एक नाजी यहूदी को हीन मानता है और यहूदी नाजी को पागल कुत्ता जैसा मानता है। यह जातिगत विद्वेष है। विचारधारा के आधार पर भी यह विद्वेष पनपता है। एक सम्प्रदाय वाला दूसरे सम्प्रदाय
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