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________________ 46 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी? जहां अक्रिया है वहां शक्ति का संरक्षण है। हम अतिक्रिया के कारण शक्ति का सही उपयोग नहीं कर पाते। जो अपनी शक्ति का आवश्यक कार्यों के लिए उपयोग करना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है, उसके लिए संवेदों पर नियंत्रण करना जरूरी है। एक संन्यासी या तपस्वी के लिए संवेदन-नियंत्रण करना आवश्यक है। उसे इन्द्रिय संयम भी करना चाहिए। किन्तु न केवल संन्यासी को, जीवन में सफलता चाहने वाले सभी व्यक्तियों को, एक सीमा तक संवेदनाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। जब इन्द्रिय-संवेदनाओं पर नियंत्रण नहीं होता तब बहुत सारे बुरे परिणाम आते हैं। जीभ की संवेदनाओं पर नियंत्रण न करने से अनेक बीमारियां होती हैं। लगभग पचास प्रतिशत बीमारियां जीभ की संवेदनाओं के कारण होती हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति में यह बात पहले से ही मान्य थी, आज एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में भी यह स्वीकृत हो गई है। हार्ट-ट्रबल या ऐसी अन्य बीमारी होने पर डॉक्टर सबसे पहले खाद्य पदार्थों पर प्रतिबंध लगाता है। वह कहता है-चिकनाई मत खाओ, घी मत खाओ, नशीली वस्तुओं का सेवन मत करो। बीमारी के साथ भोजन का गहरा संबंध है। भोजन का मानसिक शक्ति के साथ गहरा संबंध है। दृष्टि का संवदेन है देखना। यह भी एक समझने की बात है कि कब देखना चाहिए? क्या देखना चाहिए? आँख के द्वारा पदार्थ के साथ हमारा सम्पर्क स्थापित होता है। हम केवल देखते ही नहीं, ग्रहण भी करते हैं। दृष्टि का संवदेन भावों को बहुत प्रभावित करता है। जो देखने योग्य नहीं है, उसे नहीं देखना चाहिए-यह भारतीय चिन्तन की परम्परा रही है। कहा है-दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम्-आँखों से देखकर चलो। यदि आदमी आंखों से देखकर चलता है तो शक्तियां कम क्षीण होती हैं। यदि चलते समय कभी इधर और कभी उधर देखता है, दूर तक देखता है तो मस्तिष्क की बहुत शक्ति क्षीण होती है। देखने का नियम है कि सीधे देखो, दाएं-बाएं देखना उचित नहीं है। जिस व्यक्ति का अपनी संवेदनाओं पर नियंत्रण होता है वह बहुत आगे बढ़ जाता है। जिसमें नियन्त्रण की पूरी क्षमता नहीं होती, एक सीमा तक होती है, वह मूल स्थिति में कायम रह जाता है। जो संवेदनाओं का दास बन जाता है वह अपने जीवन की दुर्गति कर बैठता है। उसका अधःपतन होता है। हम इस सचाई का अनुभव करें कि संवेदनाओं पर नियन्त्रण किए बिना जीवन में विकास नहीं किया जा सकता। यदि इस स्थिति का साक्षात्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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