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प्रश्न है परिष्कार का
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करना हो तो पश्चिम जगत की यात्रा करें। वहां एक नया दर्शन मिलेगा। इतना बौद्धिक विकास, वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और धन तथा सुख-सुविधा की सामग्री होने पर भी, इन्द्रियों की उच्छंखलता के कारण वहां स्थिति अत्यन्त दुःखद और पीड़ादायक है। अमेरिका जैसे राष्ट्र में अनेक नगरों की यह स्थिति है कि नागरिक सुबह घर से निकलता है और सायं यदि सकुशल लौट आता है तो वह उस दिन को लाख-लाख धन्यवाद देता है। पता नहीं, कब उसे गोली लग जाए। यह आवश्यक नहीं है कि झगड़ा होने पर गोली चले। कोई झगड़ा नहीं, कोई द्वेष नहीं, अकारण ही गोली चली और आदमी मर गया। ऐसा पागलपन आज छा गया है कि कोई भी, कभी भी, किसी की हत्या कर डालता है। यह पागलपन आता है संवेदनाओं के अनियन्त्रण से। परिणाम का दर्शन
प्रश्न होता है कि संवेदनाओं पर नियंत्रण कैसे करें? आदमी संवेदनाओं के साथ चलता है, जीता है, ऐसी स्थिति में संवेदनाओं पर नियंत्रण करना सरल बात नहीं है। आज का बच्चा प्रारम्भ से ही इन्द्रिय-संवेदनाओं के साथ जीता है। विद्यार्थी स्कूल से निकलता है तो सीधा ध्यान जाता है सिनेमाघरों पर । घर आता है तो ध्यान जाता है टी. वी. पर । कभी क्रिकेट की कमेन्ट्री सुनता है और कभी फिल्मी गाने। उसका पूरा दिन इन्द्रिय की संवेदनाओं के सहारे बीतता है। धीरे-धीरे वह उसकी प्रकृति बन जाती है। वह परिणाम को नहीं जानता, विपाक को नहीं जानता। किंपाक का फल दीखने में सुन्दर होता है। उसका रंग-रूप मनोहारी होता है। पर उसको खाने का परिणाम है मृत्यु । इन्द्रिय-संवेदनाओं की भी यही स्थिति है। ये संवेदनाएं प्रवृत्ति-काल में सुखद लगती हैं, पर उनका परिणाम कटु होता है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो प्रवृत्ति-काल में अच्छे लगते हैं, पर उनका परिणाम-काल दुःखद होता है। कुछ कार्य प्रवृत्ति-काल में बुरे होते हैं पर उनका परिणाम सुखद होता है। भारतीय दर्शन में वही प्रवृत्ति अच्छी मानी जाती है, जिसका परिणाम कल्याणकारी होता है।
इन्द्रिय-संवेदनाओं का परिणाम कभी अच्छा नहीं होता । बच्चा इस तथ्य को नहीं जानता, अतः माता-पिता और शिक्षक को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि उसे भान हो सके कि इन्द्रिय-संयम जीवन विकास के लिए आवश्यक है। बालक की अवस्था परानुशासन की अवस्था है, आत्मानुशासन की अवस्था नहीं है। बालक जब किशोर बन जाए तब उसे परिणाम-बोध देना अत्यन्त जरूरी है। संवेदनाओं पर नियंत्रण पाने का उपाय है-परिणाम-बोध ।
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