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प्रश्न है परिष्कार का
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उसे कितना ही मिल जाए, उसका नेगेटिव एटीट्यूड कभी नहीं मिटेगा। जिसका एटीट्यूड पोजिटिव हो गया, भावात्मक हो गया, वह व्यक्ति बदल जाएगा। विधायक दृष्टिकोण के द्वारा संवेगों का संतुलन साधा जा सकता है। जब संवेग संतुलित होते हैं तब चरित्र का विकास होता है, जीवन का निर्माण होता है।
जिस जीवन और समाज की कल्पना की जा रही है, इक्कीसवीं शताब्दी के आदमी की कल्पना की जा रही है, वह आदमी शक्तिशाली तो होगा पर वह निराशा और निषेधात्मक भावों से घिरा रहेगा। अब प्रश्न यह है कि मूल आदमी को शक्तिशाली बनाना है या यंत्र-मनुष्य-रोबोट को शक्तिशाली बनाना है? यदि रोबोट शक्तिशाली बनेगा तो मनुष्य कमजोर ही बनेगा। आज बौद्धिक व्यक्ति को यह चिंतन करना है कि रोबोट भले ही बने पर मूल आदमी कमजोर न रहे। इस प्रश्न पर सबको चिंतन करना है। इस प्रक्रिया में संवेग नियंत्रण और संवेद परिष्कार की बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। सतत क्रिया : संवेद संवर्द्धन
मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ प्राणी माना जाता है। उसकी श्रेष्ठता का कारण है उसका मस्तिष्क और मेरुदण्ड प्रणाली । यह उसकी अपनी विशेषता है। उस जैसा विकसित मस्तिष्क नाड़ी तंत्र और मेरुदण्ड प्रणाली अन्य किसी को प्राप्त नहीं है। यही कारण है कि वह प्रगति कर सकता है और सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। यदि आदमी मस्तिष्क की शक्ति का अपव्यय रोक देता है तो वह अपने जीवन में बहुत सफल हो सकता है। संवदेनाओं के कारण शक्ति का अपव्यय बहुत होता है। जब मस्तिष्क इन्द्रियों के साथ चलता है तब शक्तियां क्षीण होती हैं। आँखें खुली हैं, आदमी इधर-उधर देख रहा है। वह नहीं जानता कि मस्तिष्क को कितना काम करना पड़ता है। उससे शक्तियां क्षीण होती हैं । आज का शरीरशास्त्री और मानसशास्त्री जानता है कि आँख से देखने से तंत्र को कितना प्रयत्न करना पड़ता है। पूरा तंत्र सक्रिय हो जाता है। उसे शक्तियां जगानी पड़ती हैं। निरन्तर क्रियाशीलता शक्ति का अपव्यय करती है। आदमी निरन्तर सक्रिय रहता है। सामने कोई चीज आई, आदमी देखने लग जाता है। कुछ आवाज आई, वह सुनने लग जाता है। नाक, कान, आँख, जीभ और त्वचा-ये सारे इतने सक्रिय रहते हैं कि कभी विश्राम लेते ही नहीं। कभी एक संवेद आता है, कभी दूसरा। कभी कोई संवेद उभरता है, कभी कोई संवेद उभरता है, सक्रियता बनी रहती है। यह ध्रुव सिद्धान्त है कि जहां क्रिया है, वहां शक्ति का व्यय है।
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