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________________ आर्थिक विकास और नैतिक मूल्य 25 कार्य-क्षमता बढ़ाने पर है। आदमी भला कितना उत्पादन कर सकता है? इसका परिणाम है कि मजदूर कम होते जा रहे हैं और यंत्र उनका स्थान ग्रहण कर रहे हैं, बेकारी बढ़ रही है। इस प्रकार यह फिर दूसरा प्रहार है मनुष्य पर, चैतन्य पर, कि जड़ की क्षमता बढ़ाओ और मनुष्य की क्षमता को कम करो, मनुष्य को कम करो। अर्थ-व्यवस्था की इस अवधारणा ने मनुष्य पर और चेतना पर सबसे अधिक प्रहार किया है। जिस देश के कारखाने अधिक उत्पादन करते हैं उस देश का आर्थिक साम्राज्य विस्तृत हो जाता है। जापान ने कारों का इतना उत्पादन किया कि संसार पर प्रभुत्व जमा लिया। और भी अनेक छोटे-छोटे राष्ट्रों ने पदार्थों का उत्पादन कर ऐसा जाल फैलाया कि सारे संसार पर छा गए, उनका आर्थिक प्रभुत्व जम गया। कितना ही बड़ा राष्ट्र क्यों न हो, यदि उसमें पदार्थ-उत्पादन की क्षमता नहीं है तो उसका साम्राज्य फैल नहीं सकता और आज की दौड़ में वह पिछड़ जाता है, अविकसित रह जाता है। वह विकासशील देशों की सूची में नहीं आता। क्रूरता और शोषण ___ आर्थिक-व्यवस्था के इन दोनों सूत्रों के आधार पर हम समस्या पर विचार करें और यह देखें कि इन दोनों ने किस स्थिति का निर्माण किया है? जब यंत्रों की, जड़ की क्षमता बढ़ती है-मूल्य बढ़ता है, चेतना की क्षमता कम होती है-मूल्य कम होता है, तब शोषण को बल मिलता है। शोषण आज की आर्थिक व्यवस्था और राजनैतिक प्रणाली का शब्द है। अध्यात्म की भाषा में उसका अर्थ है क्रूरता। दोनों शब्द एक ही हैं। शोषण नया शब्द है और आज की अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है, आज की राजनैतिक क्रान्ति के साथ जुड़ा हुआ है । क्रूरता पुराना शब्द है। जैसे-जैसे क्रूरता बढ़ती है, शोषण को बल मिलता है। जैसे-जैसे औद्योगिक विकास हुआ है, शोषण भी बढ़ा है। आठ घंटा काम करने वाला मजदूर बेचारा आजीविका निर्वाह करने मात्र का पैसा पाता है, जबकि ऑफिस में बैठा हुआ अफसर या मालिक लाखों-करोड़ों में खेलने लग जाता है। इतना अन्तर क्यों? इसीलिए कि मनुष्य में क्रूरता की वृत्ति है। यह वृत्ति क्यों पनपती है? यह पनपती है इन्हीं आर्थिक अवधारणाओं के कारण। इन अवधारणाओं के सन्दर्भ में क्रूरता का पनपना सहज है। क्या शोषण को मिटाया जा सकता है? क्या क्रूरता की वृत्ति बदली जा सकती है? जिसमें क्रूरता नहीं होती, वह शोषण नहीं कर सकता। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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