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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
लगा। तीनों अपनी सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त कर ही रहे थे कि शेर ने तीनों का काम समाप्त कर अपनी भूख शांत की। पेड़ पर बैठा अवैज्ञानिक, किन्तु बुद्धिमान मित्र, अपने तीनों साथियों की मूर्खता से निष्पन्न स्थिति पर रो पड़ा और अकेला घर आ गया।
आदमी जाने-अनजाने में ऐसा निर्णय कर देता है, ऐसी संस्कृति को जन्म दे देता है जो सर्वभक्षी बन जाती है। आज उसने ऐसी ही अर्थ-व्यवस्था को जन्म दिया है जो स्वयं उसको ही ग्रसने को तैयार है। यदि हम विचार करेंगे तो पाएंगे कि अणु-अस्त्रों का निर्माण आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए ही तो हुआ। प्राचीन काल में भूमि के विस्तार की बात सोची जाती थी। आज आर्थिक साम्राज्य की बात प्रमुख बन गई है। मान लें एक छोटा राष्ट्र है, लेकिन थोड़ी भूमि और सीमित जनसंख्या पर भी यदि उसका आर्थिक साम्राज्य बढ़ जाता है तो वह सारी दुनिया पर अपना सिक्का जमा सकता है। कई छोटे-छोटे राष्ट्र आज आर्थिक साम्राज्य के कारण बहुत शक्तिशाली बन गए हैं। आर्थिक व्यवस्था के साथ सारा दृष्टिकोण ही बदल गया है। पहले लड़ाइयां होती थीं भूमि के लिए और आज संघर्ष चल रहा है आर्थिक प्रभुत्व के लिए, आर्थिक साम्राज्य को बढ़ाने के लिए। आर्थिक व्यवस्था का दूसरा सूत्र __ आर्थिक व्यवस्था का दूसरा सूत्र है-आवश्यकता बढ़ाएं, कार्यक्षमता को बढ़ाएं और उत्पादन को बढ़ाएं। इस सूत्र ने आर्थिक साम्राज्य का विस्तार किया लेकिन साथ ही साथ मनुष्य के लिए संकट और खतरे भी पैदा कर दिए। आवश्यकता बढ़ाने का पहला अर्थ है-संघर्ष। क्योंकि पदार्थ सीमित हैं, आवश्यकताएं अमीम। खाने वाले अधिक हैं, खाद्य वस्तुएं कम। एक ओर कहा जा रहा है-आवश्यकताएं बढ़ाओ, दूसरी ओर कहा जा रहा है परिवार नियोजन करो। कैसा विरोधाभास है। इसका सीधा-सा अर्थ है-चेतना को घटाओ और पदार्थ को बढ़ाओ। चेतन घटे, पदार्थ बढ़े। सारा दृष्टिकोण ही पदार्थवादी हो गया है। मनुष्य, जो चेतनाशील और विवेकशील प्राणी है उसको तो कम करना और पदार्थ या जड़ को बढ़ाना। यदि आवश्यकता को बढ़ाने की बात नहीं होती तो शायद दृष्टिकोण ऐसा नहीं बनता। __ दूसरी बात है कार्य-क्षमता बढ़ाने की। इसमें भी मनुष्य की कार्य-क्षमता बढ़ाने की बात कम है, यंत्रों की कार्य-क्षमता बढ़ाने की बात अधिक है। यंत्रों की कार्य-क्षमता बढ़े कि कौन-सी मिल में कितना उत्पादन हो रहा है, कौन-सी मशीनें ज्यादा उत्पादन कर रही हैं। सारा ध्यान यंत्रों की
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