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आर्थिक विकास और नैतिक मूल्य
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इन्हीं कारणों से गांधीजी इतना जोर देकर कहते थे कि भारतीय ग्राम और ग्राम-स्वराज्य (ग्रामराज) ही उनके भावी समाज की बुनियाद है। गांधीजी का अभिप्राय भाई-भाई की तरह शान्तिपूर्वक रहने वाले स्वतंत्र और समान व्यक्तियों के समाज से था।
__ छोटी-छोटी बस्तियों में रहने और अधिकांश अपने लिए या स्थानिक उपयोग के लिए छोटे-छोटे यंत्रों पर उत्पादन करने को विज्ञान की सूई को पीछे घसीटना कह सकते हैं। लोग समझते हैं कि विज्ञान, बड़े पैमाने पर केन्द्रित उत्पादन और मनुष्यों की घनी-घनी बस्तियां अनिवार्य रूप से सहचारी हैं। इससे अधिक बेमानी बात और क्या हो सकती है? विज्ञान दो तरह का है, शुद्ध विज्ञान और व्यवहार्य विज्ञान। मैं केवल शुद्ध विज्ञान को ही विज्ञान कहूंगा, दूसरा तो यंत्र-कला है। विज्ञान का उपयोग स्वतः विज्ञान पर निर्भर नहीं करता, बल्कि समाज के चरित्र पर निर्भर करता है। बड़ी मशीनों के द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन करना रुपया कमाने वालों के लिए लाभदायक था, इसलिए यंत्र-कला ने उस विशिष्ट प्रकार के उत्पादन का मार्ग अपनाया। समाज में पैसा कमाने वाले पूंजीपतियों का प्रभाव था, इसलिए उनके मन की बात होने ही वाली थी। सरकारें भी, उनका ध्येय कुछ भी हो, केन्द्रित और बड़े पैमाने पर उत्पादन को ही पसन्द करती हैं। क्योंकि युद्ध करने के लिए (आप चाहें तो “संरक्षण के लिए" कह सकते हैं) उसकी आवश्यकता थी। इसलिए भी उसका महत्व था कि उसके द्वारा सारी आर्थिक और इसलिए राजनीतिक भी, सत्ता उनके हाथों में केन्द्रित होती थी। इस प्रकार सरकारों और मुनाफाखोरों ने मिलकर आधुनिक समाज के भस्मासुर को पैदा किया है। बेचारे विज्ञान का इस मामले में कोई हाथ नहीं था। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों का बस चलता तो वे उत्पादन और विनाश के इन बहुत से साधनों को, जिनके निर्माण में उनके आविष्कारों से सहायता मिली है चकनाचूर करके प्रसन्न होते। समाज ने यदि सत्ता, मुनाफा और युद्ध के लक्ष्यों को न अपना कर शान्ति, सद्भावना, सहकार, स्वतंत्रता और बन्धुत्व के लक्ष्यों को अपनाया होता तो यन्त्र-कला का निश्चित ही तदनुरूप विकास करने में विज्ञान का उतना ही उपयोग हुआ होता। वह विज्ञान की अवनति नहीं कही जाती बल्कि विनाश के बदले निर्माण की दिशा में उसकी प्रगति ही कही जाती। इस प्रसंग में मैं फिर हक्सले के विचार पेश करता हूं:
"मेरा व्यक्तिगत विचार है, जो दरअसल विकेन्द्रीकरण के समस्त समर्थकों का विचार है कि जब तक शुद्ध विज्ञान के निष्कर्षों का उपयोग बड़े पैमाने पर उत्पादन और वितरण करने वाली उद्योग-व्यवस्था को महंगी, अधिक विस्तृत और अधिकाधिक विशिष्ट बनाने में होता रहेगा, सत्ता का निरन्तर थोड़े-से-थोड़े हाथों में अधिकाधिक केन्द्रीयकरण होने के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता। आर्थिक तथा राजनीतिक सत्ता के इस केन्द्रीयकरण के परिणामस्वरूप जनता निरंतर अपनी नागरिक स्वतंत्रता, अपनी व्यक्तिगत स्वाश्रयता
और स्वशासन के अपने अवसर खोती रहेगी। किन्तु हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि निर्लिप्त वैज्ञानिक अनुसंधानों की उपलब्धियां अपने आप में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो केन्द्रित आर्थिक व्यवस्था, उद्योग और सत्ता के लाभ के लिए अपने उपयोग को अनिवार्य बताती हो। यदि आविष्कारक और यंत्रज्ञ लोग चाहें तो शुद्ध विज्ञान के निष्कर्षों को स्वतंत्र रूप से या सहकारी मंडलों के काम करने वाले छोटे-छोटे कारोबार के मालिकों के आर्थिक स्वावलंबन में और इसलिए राजनीतिक स्वातंत्र्य को बढ़ाने के कामों में उतनी ही उपयोगिता के साथ इस्तेमाल कर सकते हैं।"
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