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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
दृष्टिकोण है आर्थिक
जयप्रकाश नारायण के ये विचार दलगत राजनीति में लिप्त व्यक्ति के विचार नहीं हैं। उन्होंने मानवता के दृष्टिकोण से सत्य को देखा और अभिव्यक्त किया। जहां मानवता का प्रश्न है वहां समाज-व्यवस्था, राज्य-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था को अविभक्त रूप में देखना होता है। पहले समाज-व्यवस्था अच्छी हो अथवा राज्य-व्यवस्था? इस प्रश्न का उत्तर पौर्वापर्य में नहीं खोजा जा सकता। इन तीनों व्यवस्थाओं को एक साथ सम्यक् बनाया जाए, तभी शोषणमुक्त समाज की चिन्तनधारा को आगे बढ़ाया जा सकता
आज के मनुष्य का दृष्टिकोण मात्र आर्थिक बन गया है। वह प्रत्येक बात आर्थिक लाभ-अलाभ की दृष्टि से सोचता है। इसके सिवाय चिन्तन का कोई कोण ही नहीं रहा, ऐसा लगता है।
एक व्यापारी मर गया। उसे धर्मराज के सामने उपस्थित किया गया। धर्मराज ने पूछा- 'कहां जाना चाहते हो, नरक में या स्वर्ग में?' वह बोला- 'भगवन् ! जहां दो पैसे की कमाई हो, वहीं भेज दो। मेरे लिए स्वर्ग-नरक का कोई फर्क नहीं है।'
आज प्रत्येक व्यक्ति व्यापारी है। उसका दिमाग व्यावसायिक है, फिर चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र में हो या धार्मिक क्षेत्र में। किसको व्यापारी कहें और किसको न कहें? लगता है संसार का प्रत्येक वर्ग व्यापारी है, आर्थिक दृष्टिकोण से सोचने वाला है। शक्य है लेकिन करणीय है क्या? ____ आज की अर्थ-व्यवस्था के दो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं। एक सूत्र है-जो शक्य है वह काम कर लेना चाहिए। अणुबम बनाना शक्य है तो वह भी बना लेना चाहिए । इस प्रकार शक्यता के साथ करणीयता को जोड़कर आदमी ने इतनी लम्बी छलांग भर ली है कि वह अणु-शस्त्रों तक पहुंच गया। यदि यह मर्यादा होती कि शक्य तो है, पर वह करणीय भी है क्या? शक्यता का परिणाम क्या होगा? तो एक नियंत्रण आता। पर वर्तमान अर्थशास्त्र का सिद्धान्त यह बन गया है कि जो शक्य है वह करणीय भी है। इससे सीमा का अतिक्रमण हो गया। शक्यता के साथ संयम की सीमा होनी चाहिए । शक्य कार्य करणीय होता है, पर उसके साथ यह अंकुश हो कि वह शक्य कार्य किया जाए, जिससे दूसरे का कोई अनिष्ट न हो। यह बड़ा अंकुश है। शक्य तो बहुत कुछ हो सकता है। पास में कंकड़ पड़े हैं। घड़े भी पड़े हैं। कंकड़ फेंका और
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