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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
सर्वोदय से सहमत हो या नहीं, इतना तो उसे मानना चाहिए कि जितना ही जनता का अथवा स्वैच्छिक समाजवाद अधिक होगा और राज्य की ओर से लादा हुआ समाजवाद कम होगा, समाजवाद उतना ही अधिक पूर्ण और यथार्थ बनेगा।
प्रश्न यह है कि उस समय समाज का रूप क्या होगा जिसमें जनता के लिए अपने सामाजिक जीवन का स्वयं संचालन करना और जीवन के उन समस्त मूल्यों का विकास करना संभव होगा, जो सहकार, आत्मानुशासन, उत्तरदायित्व की भावना आदि के रूप में समाजवादी समाज की विशेषताएं हैं। यह ऐसा प्रश्न है, जिसकी ओर समाजवादियों ने अब तक कम-से-कम ध्यान दिया है। मानव समाज कुछ इस तरह विकसित हुआ है कि उससे आज की पेचीदा औद्योगिक सभ्यताएं ही निकलतीं, इन सभ्यताओं में शहर कहलाने वाले मनुष्यों के बड़े-बड़े जंगल हैं, आर्थिक और सामाजिक सम्बन्ध सर्वथा अवैयक्तिक और निष्प्राण हैं, कार्य-प्रणाली कष्टसाध्य है और मनुष्य आनन्द एवं सृजनशक्ति की अभिव्यक्ति के अवसरों से वंचित है। उसे केवल उत्पादन-शक्ति और कार्यक्षमता के आधार पर ही मान्यता मिलती है। विज्ञान ने अखिल विश्व को सिकोड़कर एक पड़ोस बना दिया है, किन्तु मनुष्य ने एक ऐसी सभ्यता का निर्माण कर लिया है जिसमें कि पड़ोसी भी अपरिचित बन गये हैं। इस प्रकार का केन्द्रित, पेचीदा और ऊपर से बोझिल समाज अफसरशाहों, व्यवस्थापकों, यंत्रज्ञों और अंकशास्त्रियों के लिए स्वर्ग बन जाता है। इस प्रकार का समाज एकरस नहीं बन सकता, जहां भाई भी भाई-भाई की तरह एक साथ न रह सकें।
समाजवादियों ने विज्ञान, उत्पादन, कार्यक्षमता, जीवन स्तर तथा ऊंचे-ऊंचे आदर्श वाले नारों के नाम पर समाज के इस भस्मासुर को बिल्कुल ज्यों का त्यों ले लिया है और अब वे आशा करते हैं कि इसमें सार्वजनिक स्वामित्व या जनता की मालिकी जोड़कर वे उसे समाजवादी बनायेंगे। मैं नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं कि इस प्रकार के समाज में समाजवाद सांस भी नहीं ले सकता। यदि मनुष्य छोटे-छोटे समुदायों में रहे, तो स्व-शासन, स्व-व्यवस्था, पारस्परिक सहकार और समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, इन सबका प्रयोग और विकास बेहतरी के लिए हो सकता है। पश्चिम में भी दूर-दृष्टि वाले विचारकों को अब ऐसा लगने लगा है।
__ इसके अतिरिक्त मनुष्य प्रकृति और संस्कृति दोनों की उपज है। इसलिए उसके संतुलित विकास के लिए यह आवश्यक है कि दोनों के बीच मधुर समरसता पैदा की जाए। लेकिन पार्कों और हरे-भरे मार्गों के होते हुए भी लन्दन, पेरिस, न्यूयार्क, मास्को जैसे आधुनिक सभ्यता के केन्द्रों में इस प्रकार की समरसता कायम करना संभव नहीं है। इसी का परिणाम है कि आधुनिक मनुष्य का विकास विकृत और एकांगी हो गया है। प्रकृति और संस्कृति का सरस सम्मिश्रण अपेक्षाकृत छोटे-छोटे समुदायों में ही संभव हो सकता है। आल्डस हक्सले की “साइंस लिबर्टी एण्ड पीस" में आता है: “अब यह काफी स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं, उसकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं की कौन कहे, तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक (1) उसको काफी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और एक स्वशासित दल के रूप में एक-दूसरे के प्रति और पूरे दल के प्रति, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व न हो; (2) उसके कार्य में एक खास सौन्दर्य की भावना
और मानवीय गौरव न हो और जब तक (3) अपने प्राकृतिक वातावरण के साथ उसका सजीव और गहरा अन्योन्याश्र संबंध न हो।"
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