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________________ कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी? परिवर्तनकारक तत्व तीन हैं1. मूल अथवा उपादान 2. साधन 3. निमित्त। सब व्यक्ति समान नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति के चिन्तन, बुद्धि, भावना, रुचि और क्रियात्मक क्षमता का स्तर भिन्न होता है। यह उपादान की भिन्नता सबको एक सांचे में नहीं ढाल सकती। धर्मशास्त्र अथवा धर्म का उपदेश परिवर्तन का उपादान नहीं है। उसका उपादान है-व्यक्ति की अपनी क्षमता। धर्मशास्त्र अथवा धर्मोपदेश परिवर्तन के साधन भी नहीं हैं। शब्दशास्त्र के अनुसार साधन साधकतम होता है। वे परिवर्तन के केवल निमित्त हैं। निमित्त पर उतना ही भार लादना चाहिए, जितना भार उठाने की उसकी क्षमता है। हम परिवर्तन के लिए धर्मशास्त्र अथवा धर्मोपदेश को जिम्मेदार मानते हैं और वह जिम्मेवारी पूरी नहीं होती है, तब उसकी असफलता की घोषणा करते हैं। धर्मशास्त्र का काम है दिशादर्शन। निर्दिष्ट दिशा में जाना अथवा न जाना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है। धर्म ने व्यक्ति की स्वतंत्रता को बहुत महत्व दिया है। यह प्रसिद्ध सूक्त है: आपदां कथितः पंथाः, इन्द्रियाणामसंयमः। तज्जयः संपदा मार्गः, यदिष्टं तेन गम्यताम।। इन्द्रियों का असंयम आपदा का मार्ग है। इन्द्रिय-विजय संपदा का मार्ग है। मैंने दो मार्ग बतला दिए। तुम्हारी इच्छा हो, उस पर चलो। यह चलने की स्वतंत्रता देकर धर्म ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य का सम्मान किया है। बलपूर्वक बदलने का दायित्व राज्यसभा अथवा दण्डनीति ने ओढ़ा था। उसका संकल्प था-दोषी को दण्ड दिया जाएगा और निर्दोष की पूजा होगी। दण्ड की मृदु, कठोर, क्रूर और क्रूरतर विधियां विकसित हुईं। फिर भी समाज अपराधी प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं हो सका, धरती पर स्वर्ग नहीं उतरा। यह प्रश्न पूछा जाता है कि इतने धर्मशास्त्रों और धर्मगुरुओं के होते हुए भी समाज क्यों नहीं बदला? यह प्रश्न नहीं पूछा जाता कि दण्ड की इतनी विधियों के होते हुए भी समाज क्यों नहीं बदला? यदि दण्ड समाज के लिए अंकुश है तो धर्म भी उससे कम अंकुश नहीं है। दण्ड के भय से बहुसंख्यक लोग अपराध से बचे हुए हैं। उसकी समानान्तर उक्ति यह है कि धर्म की धारणा से भी बहुसंख्यक लोग अपराध से बचे हुए हैं। हमें इस बिन्दु पर चिन्तन करना चाहिए कि दण्ड नहीं होता तो समाज केसा होता? धर्म की धारणा नहीं होती तो समाज कैसा होता? धर्म और दण्डनीति-दोनों का अपना-अपना क्षेत्र है और अपना-अपना मूल्य है। इनसे निरपेक्ष होकर हम व्यक्ति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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