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________________ आर्थिक विकास और नैतिक मूल्य 15 समाज-व्यवस्था के परिवर्तन की बात नहीं सोच सकते। धर्म की चेतना जितनी जागृत होती है, उतना ही अपराध और दण्ड का प्रयोग कम होता है। समस्या का दूसरा पहलू यह है-धर्म को मानने वाले लोग ज्यादा हैं और न मानने वाले कम, फिर समाज क्यों नहीं बदलता? समस्या उतनी गहरी नहीं है, जितनी लगती है। अंतःसम्पर्क हो तो समस्या कुछ है ही नहीं। प्रश्न धर्म को मानने वालों की संख्या का है, अनुयायियों का है, धार्मिकों का नहीं। जितने अनुयायी हैं उनका पच्चीस प्रतिशत भी यदि धार्मिक हों तो समाज व्यवस्था आमूल-चूल बदल सकती है। धार्मिक की पहली कसौटी हैसंवेदनशीलता, करुणा। दूसरी कसौटी है-अपनी सुख-सुविधा के लिए दूसरों की सुख-सुविधा का विलोप न करना । तीसरी कसौटी है-शान्ति और मैत्री के वातावरण का निर्माण। ___नए समाज की रचना के लिए जरूरत है संवेदनशीलता की, स्वार्थ विसर्जन की, शान्ति और मैत्रीपूर्ण वातावरण के निर्माण की। इसका तात्पर्य है-नए समाज की रचना के लिए जरूरत है धार्मिक व्यक्तित्व की। समाज की व्यवस्था को रुग्ण बनाए रखने के लिए धर्म के अनुयायी सर्वाधिक उत्तरदायी हैं। जातिवाद और रंगभेदवाद का ध्वज धर्म के अनुयायियों के हाथ में है। साम्प्रदायिक विद्वेष का शंखनाद उन्हीं के मन-मन्दिर में होता है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों का धर्मान्तरण करने के लिए प्रयत्नशील हैं। हिंसा, आतंक, संघर्ष और युद्ध-इसी देवालय की परिक्रमा करते हैं। इतिहास साक्षी है और वर्तमान भी इसका साक्ष्य दे रहा है। अहं का शरीर धर्म का परिधान पहनकर यह सब कुछ कर रहा है। वह नए समाज की रचना में सबसे बड़ा विघ्न बन रहा है। जरूरत है किसी नए विनायक की, जो इस विघ्न का विनाश कर डाले। वह विनायक हो सकता है अनेकान्त। समाधान है तीसरी प्रजाति ___ अनेकान्त का दर्शन है-हर विचार सापेक्ष है, हर प्रतिपादन सापेक्ष है, हर मान्यता, अवधारणा सापेक्ष है। अस्तित्व निरपेक्ष हो सकता है, पर्याय अथवा परिवर्तनशील वस्तु निरपेक्ष नहीं होती। सापेक्ष की व्याख्या देश, काल, परिस्थिति की अपेक्षा को समझकर करें, आग्रह का बंधन शिथिल होगा, संघर्ष, कलह और झगड़े कम हो जायेंगे। जातिवाद अभिजात वर्ग के अंहकार की उपज है। इसे धर्म का कवच पहनाया गया है। इस अपेक्षादृष्टि से देखने पर जातिवाद का जहर अपने आप मृदुता की सुधा में बदल जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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