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आर्थिक विकास और नैतिक मूल्य
की सीमा, इन्द्रिय-तृप्ति के संयम की चेतना का जागरण । चेतना की उपेक्षा कर केवल उत्पादन और वितरण की समानता के आधार पर समाज की व्यवस्था को नहीं बदला जा सकता। समानता की व्यवस्था करने वाले स्वयं विषमता उत्पन्न करने लग जाते हैं। यदि उनकी चेतना का रूपान्तरण नहीं हुआ तो क्या होगा? इतिहास साक्षी है-नादिरशाह ने नई व्यवस्था को जन्म नहीं दिया था और अकबर ने पुरानी व्यवस्था को बदला नहीं था। एक व्यक्तित्व क्रूरता का प्रतीक है और दूसरा समन्वय एवं सामंजस्य का प्रतीक है। समाज-व्यवस्था को बदलने का लेखा-जोखा पदार्थ की भाषा में ही किया गया है। पदार्थ की प्रकृति अनजानी नहीं है। स्पर्धा, प्रतिक्रिया, उखाड़-पछाड़-ये सब उसके सहभावी गुण हैं। आइंस्टीन जैसे धुरीण वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे-केवल ज्ञेय की शोध में लगा हुआ विज्ञान समस्या का समाधान नहीं है। ज्ञाता की प्रकृति और प्रवृत्ति को जानकर ही हम कुछ नया सृजन कर सकते हैं। असफलता का पहला कदम
आकांक्षा, स्पर्धा, प्रतिक्रिया, संघर्ष, क्रूरता और करुणा-इन सबके बीज मानवीय चेतना में छिपे हुए हैं। संग्रह की चेतना भी मनुष्य में है और उसके विसर्जन की चेतना भी मनुष्य में हैं। मनुष्य की चेतना को बदले बिना केवल आचारसंहिता और दण्डसंहिता के आधार पर नए समाज के निर्माण का स्वप्न मृगमरीचिका से अधिक कुछ नहीं है। राजनीति के चाणक्य-पुरुषों ने दण्ड को बहुत आवश्यक माना है। इस मान्यता में व्यवस्थात्मक सार नहीं है, ऐसा कहना भी कठिन है। आपराधिक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए दण्ड की उपयोगिता मान भी ली जाए, फिर भी समाज व्यवस्था को बदलने का वह आधार नहीं बनता। उसका आधार बन सकता है-सम्यग्दर्शन, दृष्टिकोण का परिवर्तन । हम दृष्टिकोण को बदले बिना ही नवाचार को स्थापित करने की छलांग लगाना चाहते हैं। यह असफलता का पहला कदम है। प्रायः सर्वत्र यही कदम उठ रहा है। दृष्टिकोण को बदलने का प्रयत्न कब कहां हो रहा है? ___अधिकार, स्वामित्व और ममत्व की भावना की एक शक्तिशाली ग्रन्थि मस्तिष्क में बनी हुई है। संविभागी समाज-व्यवस्था का वह सबसे बड़ा अवरोध है। उस ग्रन्थि का विमोक्ष सरलता से नहीं किया जा सकता। उसकी तरतमता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। किसी मनुष्य के मस्तिष्क में वह सूती धागे की गांठ और किसी मनुष्य के मस्तिष्क में रेशमी धागे की गांठ बनी
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