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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ?
हुई है । गांठ की तरतमता के आधार पर प्रयत्न की तरतमता भी अपेक्षित है | सामान्य प्रयत्न से यह कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । सिद्धान्त, योजना और वाङ्मय-ये परिवर्तन के सहकारी कारण हो सकते हैं। मूल कारण है मानवीय मस्तिष्क की धुलाई । उसके लिए आवश्यक है प्रयोगात्मक अथवा रचनात्मक कार्यशैली । तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य ने साधु-संस्था की आहार-व्यवस्था को संविभागी बनाने का निर्णय लिया। संविभागी व्यवस्था की और साथ-साथ मस्तिष्कीय परिवर्तन के प्रयोग किए। आहार के समय प्रतिदिन साधुओं को 'टहुका' नामक प्रपत्र सुनाया जाता। संविभाग की उपयोगिता का रस आहार के रस के साथ-साथ संपोषण देने लगा। धीमे-धीमे व्यवस्था स्वाभाविक बन गई। मस्तिष्क में संविभाग का मूल्य प्रतिष्ठित हो गया। सामाजिक मूल्यों को बदलने के लिए नए सामाजिक मूल्यों को मस्तिष्क में प्ररूढ़ करना परिवर्तन की अनिवार्य प्रक्रिया है । परिवर्तन के बीज की उपेक्षा कर सीधे फल तोड़ने की बात कभी न सोचें । वरदान : गरीबी या अमीरी ?
गरीबी अभिशाप है, इसे स्वीकार करने में कोई ननु नच नहीं करेगा । अमीरी वरदान है, इसकी सम्मति में भी सब साथ हैं। हर मंतव्य, वक्तव्य या सिद्धान्त सापेक्ष है । यह अनेकान्तवाद की उदात्त घोषणा है । सापेक्षदृष्टि से माना जा सकता है - गरीबी अभिशाप है । जीवन चलाने के लिए रोटी, मकान, वस्त्र, औषधि आदि की अपेक्षा है । गरीबी में अपेक्षा की पूर्ति नहीं होती । इस दृष्टिकोण से कहा जा सकता है - गरीबी अभिशाप है । एक अमीर व्यक्ति जीवनोपयोगी सब वस्तुओं को सुलभ कर सकता है। इस अपेक्षा से कहा जा सकता है - अमीरी वरदान है
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प्रत्येक वस्तु सप्रतिपक्ष है, उसका दूसरा पक्ष भी होता है । सप्रतिपक्षता के सिद्धान्त के आधार पर कहा जा सकता है - गरीबी वरदान है और अमीरी अभिशाप है। गरीबी वरदान है, यह एक समाजवादी चिन्तक को कभी मान्य नहीं हो सकता । सामान्यतः ऐसा कहना मुझे भी इष्ट नहीं है किन्तु सत्य को देखने का एक ही कोण नहीं है । संवेदनशीलता या करुणा के अंकुर गरीबी की उर्वरा में पनपते हैं । उनके लिए अमीरी एक बंजर भूमि है । जैसे लाभ होता है, वैसे ही लोभ बढ़ता है, आसक्ति बढ़ती है । जैसे लोभ बढ़ता है, वैसे
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क्रूरता बढ़ती है।
मैं गरीबी को मनोवृत्ति के स्तर पर देखता हूं । अमीरी को भी मनोवृत्ति के स्तर पर ही देखना उचित होगा । पेट भरने को रोटी न मिले, वह अभाव
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