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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
समाज को मान्य नहीं हो सकती। उससे समाज की समस्या का समाधान भी नहीं हो सकता। वैज्ञानिक शोध की दिशा ___ वैज्ञानिक शोध व्यवसाय, शस्त्र-निर्माण, चिकित्सा और सुविधा पर केन्द्रित है। चेतना और सत्य की दिशा में उसकी गति मंद है। सत्ता की पीठ पर बैठे हुए लोग विज्ञान का अधिकतम उपयोग अपनी सुरक्षा और प्रभुत्व की संवृद्धि के लिए करना चाहते हैं। उद्योगपति विज्ञान का उपयोग अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए करना चाहता है। सत्य की शोध का क्षेत्र सत्यान्वेषी दार्शनिकों और वैज्ञानिकों से शून्य जैसा हो रहा है। इस स्थिति में समाज व्यवस्था को बदलने का स्वप्न क्या दिवास्वप्न नहीं है? चरित्र निर्माण
और व्यक्ति निर्माण की कल्पना क्या तर्कशास्त्र का आकाशकुसुम नहीं है? इन्द्रिय चेतना का मयूरपंख अपने नाना रंगों से जनमानस को सम्मोहित कर रहा है। इस सम्मोहन का समुचित उपचार है अतीन्द्रिय चेतना का विकास। अतीन्द्रिय चेतना से हमारा तात्पर्य पारदर्शी चेतना, दूरदर्शन, दूरश्रवण जैसी सिद्धि की चेतना से नहीं है। उसका तात्पर्य है इन्द्रिय और मन की चेतना से परे जाकर अपने आपको देखना, समाज को देखना, पदार्थ को देखना और विश्व को देखना। इन्द्रिय चेतना का सम्मोहन __ इन्द्रिय चेतना के सम्मोहन में केवल पदार्थ का दर्शन होता है, न समाज के सन्दर्भ में पदार्थ का और न पदार्थ के सन्दर्भ में समाज का दर्शन होता है। समाज वाचिक उपचार से अधिक मूल्य नहीं रखता। इस स्थिति में समाज को बदलने और समाज-व्यवस्था का नवीनीकरण करने की बात कथमपि आगे नहीं बढ़ पाती। समाजवाद और साम्यवाद के लिए सबसे बड़ा राहू इन्द्रिय चेतना का सम्मोहन बना है। चाणक्य जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ ने कहा था-शासक को इन्द्रियजयी होना चाहिए। राज्यस्य मूलं इन्द्रियजयः (चाणक्य सूत्र-4) इस उक्ति में छिपे सत्य को समाज व्यवस्था को बदलने की चिन्ता करने वाले संभवतः देख नहीं पा रहे हैं। एकाधिकार और तानाशाही प्रवृत्ति और मनोवृत्ति ने इन्द्रिय चेतना को खुलकर खेलने का अवसर दिया। समाजवाद की कल्पना साकार नहीं बन सकी। इस ध्रुव सत्य की घोषणा की जा सकती है-अतीन्द्रिय चेतना की पृष्ठभूमि का निर्माण किए बिना समाजवाद का अवतरण नहीं किया जा सकता।
अतीन्द्रिय चेतना का अर्थ है-व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा, उपभोग
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