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________________ आर्थिक विकास और नैतिक मूल्य की दिशा उद्घाटित होगी? वह दिशा है-अतीन्द्रिय चेतना के जागरण के लिए मानव समाज का प्रस्थान। मंत्र के अर्थ के साथ तादात्म्य विकास की यात्रा अनवरत चालू है। अविकास से विकास की ओर गति करना मुनष्य का लक्ष्य रहा है। उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अनेक उपाय खोजे गए। उनमें एक उपाय है-प्रार्थना, मानसिक संकल्प की अभिव्यंजना। शक्ति अव्यक्त रहती है अथवा अव्यक्त में शक्ति निहित है। उसकी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है ज्योति। यह दीप, मणि, विद्युत अथवा सूर्य के बिम्ब से निःसृत होने वाली ज्योति नहीं है। यह है अन्तर में उद्भाषित होने वाली ज्योति । उस ज्योति की प्रतिबंधक शक्ति निशा नहीं है, निशा में होने वाला तम भी नहीं है। उसके लिए दिन और रात का कोई भेद नहीं है। उस ज्योति का आवारक है मोह, मूर्छा या मूढ़ता। मनुष्य दिग्मूढ़ हो रहा है। दिशामोह का लक्षण है-कथनी और करनी का द्वैध । वह उच्चारण करता है-'सत्यमेव जयते' और आचरण करता है-'असत्यमेव जयते'। उसका उद्गान है-'तमसो मा ज्योतिर्गमय' और आह्वान है-'तमसो मा संतमसं गमय' । वैदिक ऋषि ने 'सत्यमेव जयते' आदि मंत्र का पाठ किया था मोह से निर्मोह की भूमिका तक पहुंचने के लिए। उसके शब्दोच्चार मात्र से वहां नहीं पहुंचा जा सकता, जहां पहुंचना है। आवश्यक है मंत्र के अर्थ के साथ तादात्म्य की साधना। __ समाज का वर्तमान मानस आर्थिक मोह से अधिक प्रभावित हो रहा है। संस्कृत का सूक्त है-'अर्थमनर्थं भावय नित्यम्' । सामाजिक भूमिका पर खड़े होकर मैं नहीं कहना चाहता कि अर्थ अनर्थ का मूल है। सचाई यह है कि अर्थ के बिना कोई भी अर्थ सिद्ध नहीं होता। अर्थ के विषय में एक सापेक्ष दृष्टिकोण का निर्माण आवश्यक है। धर्मग्रन्थों में अर्थ के जितने दोष बतलाए गए हैं, वे सत्यांश से परे नहीं हैं। अर्थशास्त्र में विकास के लिए अर्थ के मूल्य का प्रतिपादन किया गया है। उसमें भी सत्यांश है। दोनों को मिलाकर एक सापेक्ष सत्य की अवधारणा निर्मित करनी है। उसका नाम होगा-संतुलित अर्थशास्त्र।अर्थ अनर्थ है, इस अवधारणा को निरपेक्ष नहीं माना जा सकता। इसका हेतु है-अर्थ के बिना आदमी अपनी भूख भी नहीं बुझा सकता। आर्थिक विकास ही सब कुछ है, इस मान्यता ने मनुष्य के चरित्र का अपभ्रंश किया है। इसलिए इस अवधारणा को सीमित करना नितान्त जरूरी है। तात्पर्यार्थ यह है-केवल धर्मशास्त्र और केवल अर्थशास्त्र की अवधारणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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