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शिक्षा
इक्कीसवीं शताब्दी में क्या शिक्षा का स्वरूप यही रहेगा, जो बीसवीं शताब्दी में है? यदि यही रहा तो शिक्षा पदार्थ जगत का विस्तार कर पाएगी, किन्तु नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करने वाले आदमी का निर्माण नहीं होगा ।
बीसवीं शताब्दी यंत्र, तकनीकी विकास और पदार्थ विकास की शताब्दी रही । वस्तुओं का विकास इतना हो रहा है कि मनुष्य गौण हो गया है, पदार्थ मुख्य बन गए हैं। पदार्थ के मूल्य ने मानव के मूल्य को कम कर दिया है। चिन्तन और क्रिया की यही गति रही तो एक दिन मनुष्य यंत्र के सामने खड़ा होकर अपने आपको दयनीय स्थिति में पाएगा। हम पदार्थ विकास के विरोधी नहीं हैं । हमारा चिन्तन और वक्तव्य यही है कि पदार्थ विकास के साथ चेतना का विकास भी होना चाहिए - जितना पदार्थ का विकास उतना चेतना का विकास। इस क्रम में पदार्थ सिर-दर्द नहीं बनेगा और मनुष्य पदार्थ जगत को ही सब कुछ नहीं मानेगा । हमारी शिक्षा केवल पदार्थ विकास की हो तो मनुष्य तनाव का जीवन जीएगा और यदि हमारी शिक्षा केवल चेतना के विकास की हो तो मनुष्य अभाव का जीवन जीएगा। एकांगी शिक्षा का परिणाम किसी के लिए भी अच्छा नहीं होगा । सर्वांगीण विकास के लिए सर्वांगीण शिक्षा की आवश्यकता है । उसमें पदार्थ विकास और चेतना का विकास - दोनों का प्रशिक्षण मिलेगा। यह पद्धति जीवन का विज्ञान अथवा जीने की कला है ।
जीवन क्या है?
जीवन क्या है ? यह सबसे पहला आर सबसे बड़ा प्रश्न है । पहला इसलिए कि जीवन के होने पर सब कुछ होता है और जीवन न होने पर कुछ भी नहीं होता । मनुष्य की सारी प्रवृत्तियां जीवन के पीछे चलती हैं । जीवन की समाप्ति का अर्थ है - मानसिक, वाचिक और कायिक- सब प्रवृत्तियों की समाप्ति । बड़ा इसलिए कि जीवन के अस्तित्व काल में जिन वस्तुओं का मूल्य होता है; जीवन की समाप्ति के साथ वे वस्तुएं उसके लिए मूल्यहीन हो जाती हैं।
जीवन के मुख्य अंग सात हैं
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