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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
राग और द्वेष से लिप्त मनुष्य के विचार और आचार के तट दो होते हैं और उनकी दूरी को कभी मिटाया नहीं जा सकता। नदी के इस तट से उस तट पर जाने की सुविधा के लिए सेतु का निर्माण किया जाता है। विचार और आचार की दूरी मिटाने के लिए एक सेतु है और वह है संस्कार । एक विचार की दीर्घकाल तक पुनरावृत्ति करने पर वह संस्कार में बदल जाता है। संस्कार का निर्माण होने पर विचार और आचार की दूरी मिट जाती है। मार्क्स और गांधी के विचारों को संस्कार में बदलने की प्रक्रिया चालू रहती तो नई समाज व्यवस्था का सपना आकार ले लेता।
कार्ल मार्क्स ने नई व्यवस्था के लिए हिंसा को सर्वथा त्याज्य नहीं माना। महात्मा गांधी ने अहिंसा को साधन के रूप में स्वीकार किया। उसके लिए हृदय परिवर्तन की अनिवार्यता मान्य की। हृदय परिवर्तन को विज्ञान की भाषा में मस्तिष्कीय परिवर्तन कहा जा सकता है। इसके लिए सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन आदि अनेक प्रयोग भी प्रचलित किए। वे प्रयोग स्वतंत्रता संघर्ष की अवधि में व्यवहार में आए। स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद वे निर्वीर्य जैसे हो गए। उसका हेतु यही है कि हृदय परिवर्तन की कोई विधि निर्देशित नहीं की गई। स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक दंगे उभरे। उस समय महात्मा गांधी ने बहुत प्रयत्न किया। अपेक्षित सफलता नहीं मिली। तब उन्होंने व्यास के शब्दों में कहा
उर्ध्वबाहः विरोम्येष, न च कश्चित् शृणोति माम्। सत्ता और धन का आकर्षण बढ़ता चला गया। उसमें गांधी का दर्शन और प्रयोग राख से ढकी आग जैसा हो गया।
सत्ता और धन की आसक्ति को कैसे कम किया जा सकता है? यह मुख्य प्रश्न है। बहुत सारी समस्याओं के समाधान के लिए इसका उत्तर खोजना बहुत-बहुत जरूरी है। क्या इक्कीसवी शताब्दी वह खोज पाएगी?
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