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________________ कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ? कारण पर अधिक चलता है। इससे समस्या सुलझती नहीं । हमारा चिन्तन गौण कारण अथवा सतही स्तर पर कैसे होता है, इसे स्पष्ट करना जरूरी है। हर आदमी का लक्ष्य बना हुआ है - अधिकतम उपभोग, अधिकतम सुविधा और अधिकतम धन । इस लक्ष्य के गर्भ में नैतिक मूल्यों की समस्या छिपी हुई है । यह हमारे चिन्तन का विषय नहीं बनता । उक्त लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक आदमी वैधानिक तरीके से व्यवसाय करता है । दूसरा आदमी कानून का अतिक्रमण कर येन-केन-प्रकारेण धन को प्राप्त करता है । पहला साहूकार है और दूसरा अपराधी । समाज अपराध को मिटाना चाहता है । उसी के परिपार्श्व में नैतिक मूल्यों के संकट पर चिन्तन होता है । एक साहूकार और एक अपराधी - दोनों का लक्ष्य समान है - अधिकतम उपभोग, अधिकतम सुविधा और अधिकतम धन । यदि लक्ष्य में अपराध की गंध नहीं है तो लक्ष्य पूर्ति के तरीके में उसकी गंध कहां से आएगी? यदि लक्ष्य में ही त्रुटि है तो फिर साहूकार और अपराधी के लिए भेदरेखा कहां होगी? जिसमें वैधानिक तरीके से काम करने की क्षमता है, उसने कानून की छत्रछाया में अपना लक्ष्य पूरा करना चाहा । जिसमें वैधानिक तरीके से काम करने की क्षमता नहीं है, उसने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए कानून को तोड़ा। जहां तरीके पर विचार करें वहां साहूकार का दायरा अलग है, अपराधी का कटघरा अलग है। जहां लक्ष्य पर विचार करें, वहां साहूकार और अपराधी - दोनों ही एक कारागृह में बन्दी हैं । 3 केवल तरीकों पर विचार करने से समस्या सुलझ नहीं पाएगी । लक्ष्य में जो भूल है, उसी पर हमारा गंभीर चिन्तन होना चाहिए। पहली भूल को सुधारे बिना दूसरी भूल को सुधारने का प्रयत्न क्षणिक उपचार होगा, स्थायी समाधान कभी नहीं । इक्कीसवीं शताब्दी के प्रवेश पर लम्बे समय से चर्चा हो रही है । स्व. प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक बार कहा था - 'हम विकसित तकनीक, विकसित उद्योग के साथ इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश करेंगे ।' विकास के लक्ष्य हैं - सुपर कम्प्यूटर, रोबोट, अन्तरिक्ष में खेती और नगर-निर्माण तथा अन्तरिक्ष की यात्रा । प्रश्न एक ही शेष है- आखिर विकास किसलिए ? विकास के लिए मनुष्य है या मनुष्य के लिए विकास है? यदि विकास के लिए मनुष्य है तो वह भी विकास की मशीन का एक पुर्जा मात्र है । यदि मनुष्य के लिए विकास है तो मनुष्य के अस्तित्व पर विचार करना होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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