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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
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में उसका ही प्रमुख हाथ है। क्या इक्कीसवीं शताब्दी का पहला दिन नैतिक मूल्यों के विकास का पहला दिन होगा? यदि हो तो इक्कीसवीं शताब्दी मानवीय अस्तित्व के लिए स्वर्णिम होगी। बीसवीं शताब्दी से मिलने वाली अच्छाइयां नैतिकता की पृष्ठभूमि पर ही विकसित हो पाएंगी।
क्या नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किए बिना वैज्ञानिक विकास मानवीय अस्तित्व के लिए कल्याणकारी बनेगा?
क्या नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किए बिना लोकतंत्र और समाजवाद मानवीय अस्तित्व को सुरक्षा देगा?
. क्या नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किए बिना पदार्थवादी और सुविधावादी दृष्टिकोण चेतना को विकसित करेगा?
क्या नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किए बिना आर्थिक विकास मनुष्य को सुखी बना पाएगा? आर्थिक असदाचार को मिटा पाएगा?
क्या नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किए बिना पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या को सुलझाया जा सकेगा? __इक्कीसवीं शताब्दी समन्वय की शताब्दी होगी। उसमें धन और सत्ता का स्वतंत्र मूल्य नहीं होगा। वे नैतिक मूल्यों से अनुप्राणित होकर ही उच्छ्वास लेंगे। 'नैतिक मूल्यों का संकट है' यह स्वर यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनाई दे रहा है। वह क्यों है? इस पर गंभीर चिन्तन नहीं होता। प्रश्न है-गम्भीर चिंतन कौन करे? सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोग अगले चुनाव में अपने दल को विजयी बनाने की चिन्ताएं करते हैं। बड़े उद्योगपति और बड़े व्यवसायी राजनीति पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने की चिन्ता में व्यस्त हैं। बड़े-बड़े साधु-संन्यासी अपने आश्रम और पीठों की ओर जनता को आकृष्ट करने की चिन्ता में व्यस्त हैं। नैतिक मूल्यों के विकास की चिन्ता कौन करे और क्यों करे? बीसवीं शताब्दी में कुछ नाम अंगुलियों पर आए-राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे, आचार्य तुलसी आदि। नैतिक मूल्यों के विकास में इनका महत्त्वपूर्ण अवदान है। किन्तु वर्तमान अतीत नहीं बनता। आज अपेक्षा है उस व्यक्तित्व की जो जातिवाद, साम्प्रदायिक कट्टरतावाद की भूमि से ऊपर उठा हुआ हो । समस्या को सुलझाने के लिए इसके साथ दो बातें और अपेक्षित हैं-सतत समर्पण और गंभीर चिंतन । मैं इस बात को फिर दोहराना चाहता हूं-नैतिक मूल्यों की समस्या पर गंभीर चिंतन होना चाहिए। गंभीर चिन्तन से मेरा तात्पर्य है-समस्या के उपादान अथवा मूल कारण पर चिन्तन होना चाहिए। हमारा चिन्तन गौण
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