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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
एकछत्र साम्राज्य है मैत्री, क्षमा और भाईचारा। धर्म आंतरिक तत्व है। सम्प्रदाय संगठन है। संगठन बाहरी होता है। जो बाहरी है, उसके साथ संघर्ष और युद्ध जुड़ सकते हैं। महावीर ने कहा था-'एक व्यक्ति धर्म छोड़ देता है, सम्प्रदाय नहीं छोड़ता और एक व्यक्ति सम्प्रदाय छोड़ देता है, धर्म नहीं छोड़ता।' उनके सामने दोनों चित्र साफ थे। धर्म को छोड़ने वाला भूमि को रक्तरंजित कर सकता है। सम्प्रदाय को छोड़ने वाला वैसा नहीं कर सकता। धर्म नहीं है, कोरा सम्प्रदाय है, वहां सब कुछ हो सकता है। अहिंसा के लिए दो विकल्प हैं-केवल धर्म अथवा धर्म से अनुप्राणित सम्प्रदाय।
कुछ धार्मिक धर्म, सम्प्रदाय और जाति-तीनों को एक धागे में पिरोई माला मानते हैं। उनके लिए धर्म और सम्प्रदाय को अलग करना संभव नहीं है और इसीलिए प्रलोभन, बलप्रयोग और युद्ध का वर्जन भी उनके लिए संभव नहीं है। जीवन के प्रत्येक कार्य पर धर्म की छाप हो, उसका प्रभाव हो यह वांछनीय है। किन्तु प्रत्येक कार्य धर्म की प्रेरणा से प्रेरित अथवा धर्मानुमोदित हो, इस प्रकार की सोच वांछनीय नहीं है। धार्मिक अवधारणा के क्षेत्र में कुछ ऐसा मिश्रण हुआ है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य को धर्मानुमोदित मानकर अपने मन को ललचाना पसन्द करता है। वह अधर्म का कार्य करता ही नहीं। जो कुछ करता है, धर्म का ही करता है। इस भ्रान्तिपूर्ण दृष्टिकोण ने हिंसा को बढ़ावा दिया है। प्रत्येक कार्य में धर्म का प्रभाव हो, इसका अर्थ है अनैतिक आचरण से बचना तथा अनावश्यक हिंसा से बचना। प्रत्येक कार्य को धर्मानुमोदित मानने का अर्थ है अपने अनैतिक या हिंसायुक्त आचरण को भी सम्यग् मानना और उसे धर्म की छत्रछाया में संरक्षण देना। दोनों अवधारणाओं का यह अंतर जितना स्पष्ट होता है, उतनी ही अहिंसा की संभावना बढ़ती है। अवांछनीय है हिंसा के बीज
हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं या उग्र हो जाती हैं तब समाज का ध्यान हिंसा की अवांछनीयता की ओर आकृष्ट होता है। उसके बीज की ओर ध्यान बहुत कम जाता है। इसका फलित यही हो सकता है कि हिंसा के प्रति समाज की चिन्ता भावना के स्तर पर है, यथार्थ के स्तर पर नहीं है। समाज का एक बड़ा भाग ऐसा भी है जो हिंसा को स्वाभाविक मानता है। यथार्थ के स्तर पर हिंसा की समस्या पर वे ही लोग सोचते हैं जिनकी भावनाओं का उदात्तीकरण हुआ है, परिष्कार हुआ है और सत्य के साथ जिनका तादात्म्य स्थापित हुआ है। जिनकी भावनाएं आवेशमूलक हैं, उनके लिए हिंसा कोई
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