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अहिंसा
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बीच चुनाव का प्रश्न नहीं है। आज एक ओर मनुष्य की सहज बुद्धि और उसकी जिजीविषा तथा दूसरी ओर उत्तरदायित्वहीन, संकुचित और स्वार्थी राष्ट्रीय पूर्वाग्रहों के बीच चुनाव का प्रश्न है।'
इस वक्तव्य में सचाई की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। सत्ता और अधिकार-विस्तार का आग्रह हिंसा को पल्लवित करता है। भगवान महावीर ने कहा था-णो अज्झावेयव्वा-किसी पर शासन मत करो। यह अहिंसा का संदेश बहुत व्यापक और बहुत गुरुतर है। इतना गुरुतर भार हर आदमी शायद न उठा सके पर शासन-विस्तार की भावना से बचा जाए तो विश्व शान्ति का मार्ग सीधा-सरल हो जाता है। क्या वर्तमान शासक सचमुच विश्वशान्ति चाहते हैं? क्या सचमुच हिंसा को कम करना चाहते हैं? सांप्रदायिक कट्टरता और हिंसा
मेरे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति हो जाएगी, अन्यथा नहीं होगी। इस घोषणा ने साम्प्रदायिक कट्टरता और हिंसा-दोनों को एक साथ जन्म दिया। इसी अवधारणा के आधार पर प्रलोभन और बलप्रयोग के द्वारा सम्प्रदाय परिवर्तन की परम्परा का सूत्रपात हुआ । बहुत लोग कहते हैं-धर्म के नाम पर रक्तपात हुआ, युद्ध हुए, हिंसा की होली खेली गई। वास्तव में यह कहना भ्रान्त है। यह सब धर्म के नाम पर नहीं हुआ। किन्तु सम्प्रदाय-परिवर्तन की धारणा के आधार पर हुआ। मनुष्य में सहज ही विस्तार की भावना होती है। वह अपने आपको बड़ा बनाना चाहता है। अपने विचारों के अनुयायियों की संख्या बढ़ाना चाहता है। मैं सोचूं वैसे सब सोचें, मैं करूं वैसे सब करें, सब मेरा अनुगमन करें, यह चाह एक अदम्य चाह है। इसी चाह ने युद्ध लड़े, संघर्ष को जीवन्त बनाया।
धर्म का प्रश्न नितान्त भिन्न है। उसकी आध्यात्मिक अवधारणा में संघर्ष जैसा कुछ है ही नहीं। अंधकार ने शिकायत की-सूरज मेरा पीछा कर रहा है। मैं जहां जाता हूं, वहीं वह पहुंच जाता है और मुझे भगा देता है। सबको जीने का अधिकार है। प्रभु! आपके राज्य में फिर मेरे साथ ऐसा क्यों? प्रभु ने सूरज को बुला भेजा और अंधकार की शिकायत के बारे में पूछा। सूरज बोला-मैं जानता ही नहीं, अंधकार क्या है और कहां है? मैंने आज तक उसकी सूरत भी नहीं देखी कि वह कैसा है? फिर पीछा करने और भागने की बात कहां?
धर्म के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि उसने युद्ध की आकृति भी नहीं देखी। लड़ाई, संघर्ष और युद्ध क्या है, वह जानता भी नहीं। उसका
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