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________________ अहिंसा 107 विशेष समस्या नहीं है। जब कोई बड़ी हिंसात्मक घटना घटित होती है, तब उनमें एक प्रकंपन पैदा होता है और वे हिंसा को समाज के लिए दुःखद मानने लगते हैं। दो विश्व-युद्धों से प्रभावित और प्रताड़ित जनता में हिंसा के प्रति जो विमनस्कता पैदा हुई है, वह उससे अप्रभावित लोगों में नहीं है। इसी कारण जिन लोगों ने साम्प्रदायिक कट्टरता के कटु परिणाम भोगे हैं, उनमें साम्प्रदायिक हिंसा के प्रति आक्रोश उभरा है। वह दूसरे लोगों में नहीं है। क्या यह संभव हो सकता है कि हिंसक घटनाओं के सन्दर्भ में हिंसा की अवांछनीयता पर हम न सोचें। हम सोचें-हिंसा के बीज अवांछनीय हैं। उनका उन्मूलन आवश्यक है। अन्यथा वे कभी भी हिंसक घटना को जन्म दे सकते हैं। अपराध के लिए उत्तरदायी कौन? । वास्तविक सचाई और व्यावहारिक सचाई के बीच एक दूरी है। वह दूरी अतीत में थी और आज भी है। मानवीय दुर्बलता पहले भी थी और आज भी है। मनुष्य आदर्श की बात करता है, उसे जीना पसन्द नहीं करता। उसके भीतर महानता और अल्पता-दोनों के बीज विद्यमान हैं। महानता के बीज को जब सिंचन मिलता है, तब वह आदर्श की ओर चरण बढ़ाता है। अल्पता के बीज सक्रिय होकर उसे आदर्श विमुख बना देते हैं। यही हेतु है वास्तविक सचाई और व्यावहारिक सचाई की दूरी का। अहिंसा वास्तविक सचाई है। भगवान महावीर ने कहा-अहिंसा सब जीवों का कल्याण करने वाली है। जैसे भूखे के लिये भोजन, प्यासे के लिए जल और पक्षी के लिए आकाश सहारा है, वैसे ही अहिंसा सबके लिए सहारा है। व्यवहार की समस्या प्रबल बनती है, तब आदमी इस वास्तविक सचाई को आंखों से ओझल कर देता है। पुत्र और पुत्री के जन्म-प्रसंग के आधार पर इसका अंकन किया जा सकता है। भारतीय मानस में पुत्र के जन्म के साथ भविष्य की संभावना और सुरक्षा की भावना जड़ी हुई है। ये संभावनायें ही भ्रूण हत्या जैसे जघन्यतम अपराध के लिए उत्तरदायी हैं। अकडं करिस्सामि-जो कार्य किसी ने नहीं किया, वह मैं करूंगा-यह धारणा भी आदमी को वास्तविक सचाई से दूर ले जाती है। वैज्ञानिक जगत में एक होड़ लगी हुई है कुछ नया खोजने की और कुछ नया करने की। नया खोजना बुरा नहीं है, किन्तु जिस नयी खोज के साथ मानव जाति के विनाश की बात जुड़ी हुई हो, वह नयी खोज निश्चित ही अवांछनीय है। मैक्सिको के डॉक्टरों ने पार्किसन (एक प्रकार का कंपनशील लकवा) से पीड़ित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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