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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी?
के अस्तित्व को न स्वीकारना, पदार्थ के अस्तित्व को भी न स्वीकारना । अहिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु है-छोटे-से-छोटे जीव और छोटे-से-छोटे पदार्थ-परमाणु तक के अस्तित्व को स्वीकारना और उनके साथ छेड़छाड़ न करना। अपने अस्तित्व की भाँति दूसरों के अस्तित्व का भी सम्मान करना।
यह आत्मौपम्य का सिद्धान्त अहिंसा का पहला सिद्धान्त है। पदार्थ के अपरिग्रह का सिद्धान्त अहिंसा का उच्छ्वास है, प्राणतत्त्व है। यही अहिंसा का सम्यग्दर्शन है। जो लोग इस दर्शन को नहीं जानते, वे अपने संकुचित स्वार्थों की सीमा में जीते हैं। उनकी पूर्ति के लिए हिंसा का उच्छृखल प्रयोग करते हैं और पर्यावरण का प्रदूषण भी पैदा करते हैं। हिंसा की बाढ़ केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही अवांछनीय नहीं है किन्तु पर्यावरण की दृष्टि से भी अवांछनीय है। इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों दृष्टियों से अवांछनीय है। इसलिए महावीर ने कहा था
एस खलु गंथे - हिंसा ग्रंथि है। एस खलु मोहे - यह मोह है। एस खलु मारे - यह मृत्यु है। एस खलु नरए - यह नरक है। तं से अहियाए - हिंसा मनुष्य के लिए हितकर नहीं है। तं से अबोहीए - वह बोधि का विनाश करने वाली है।
इस स्वर का उदात्तीकरण ही पर्यावरण प्रदूषण में उलझे समाज में एक नया प्रकंपन पैदा कर सकेगा।
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