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अहिंसा
सत्ता और हिंसा का गठबंधन बहुत पुराना है। शक्तिशाली लोग सत्ता को हथियाते रहे हैं। उसके लिए हिंसा का सहारा भी लिया जाता है। आज की चुनावी हिंसा उसी का नया संस्करण है। सब लोगों में समान बुद्धि और समान शारीरिक शक्ति नहीं होती। यह बुद्धि और शक्ति की विषमता हिंसा का दरवाजा खोल देती है। प्राकृतिक वातावरण, भौगोलिकता, भाषा, सभ्यता और संस्कृति की समानता एक इकाई बनती है। हमारी पृथ्वी पर ऐसी अनेक इकाइयां बनी हुई हैं। शक्तिशाली लोग इन इकाइयों को अपने अधिकार में लेना चाहते हैं। यह क्रम राजतंत्र में भी चला था और लोकतंत्र में भी चल रहा है। राजतंत्र राज्य-विस्तार के आधार पर चलता था और लोकतंत्र दल-विस्तार के आधार पर चल रहा है। हिंसा बढ़ती है या घटती है, यह प्रश्न दूसरे नम्बर पर है। पहले नम्बर का प्रश्न है-दल की शक्ति बढ़ती है या घटती है।
केन्द्रित शक्ति में हिंसा की संभावना अधिक होती है। लोकतंत्र का अर्थ है-शक्ति का विकेन्द्रीकरण। यदि तंत्र विकेन्द्रित नहीं है, लोकतंत्र राजतंत्र से भी अधिक खरतनाक बन जाता है। चुनाव द्वारा सरकार का परिवर्तन, यदि लोकतंत्र की सीमा इतनी हो तो मानना होगा-यह सत्ता पर अधिकार करने का एक नया विकल्प है। राजतंत्र में सत्ता पर अधिकार पैतृकता से होता था और लोकतंत्र में सत्ता पर अधिकार पैतृकता से नहीं होता। यह अन्तर स्पष्ट है। सत्ता पर आसीन होने के पश्चात् जो अन्तर होना चाहिए, वह परिलक्षित नहीं है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना यह संभव नहीं है। केन्द्रित सत्ता और केन्द्रित अर्थव्यवस्था में हिंसा को पनपने का अधिक मौका मिलता है। सत्ता और अर्थव्यवस्था विकेन्द्रित हो
अहिंसा की दिशा में प्रस्थान तभी संभव है जब सत्ता और अर्थव्यवस्था विकेन्द्रित हो। विकेन्द्रित व्यवस्था में सत्तासीन व्यक्ति से अधिक विनम्र, मृदु
और व्यवहार-कुशल होने की अपेक्षा की जा सकती है। जनता की समस्या समझने और सुलझाने की अधिक संभावना की जा सकती है। केन्द्रित
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