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गृहस्थ वर्ग में उपधान पद्धति का जन्म वर्तमान महानिशीथ के निर्माण समय विक्रम की नवमी दशमी हुआ है ।
शती के बाद के काल में
मुहूर्त देखने का विधान -
पंचमंगल के विनयोपधान की आदि अन्त में तथा सर्वोपधान के अंत में माला पहिनाने के समय शुभ समय देखने का सूत्रकार कहते हैं, तीनों मुहूर्त संबन्धी सूत्र पाठ निम्न प्रकार का है
" सुत्तत्थो भयत्तगं चिइवंदया- विहाणं अहिज्जित्ता गं तत्रो सुपसत्थे सोहणे तिहि करण- मुहुत्त गक्खत्त-जोग- लग्ग-ससिबले जहासत्तीए जगगुरूणं संपाइयपूवयारेणं पडिला हियसाहुवग्गेख य ।"
अर्थात् - 'सूत्र अर्थ और तदुभयात्मक चैत्यवंदना विधान को पढ़ कर शुभवार, शोभनतिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न और चन्द्रबल में यथाशक्ति जिन पूजा और साधुवर्ग की भक्ति करके गुरु के हाथ से पुष्पमाला परिधान करके गुरु साक्षिक प्रभिग्रहादि धारण करे ।'
पूर्वोक्त पाठ उपधान की माला के मुहूर्त सम्बन्धी है, इसी प्रकार पंच मंगल महाश्रुत स्कन्ध के उद्देश तथा अनुज्ञा के प्रसंगों पर भी "दिन" "लग्न" शब्द प्रयुक्त हुए हैं, इससे “महानिशीथ " सूत्र के निर्माण समय का भी पता चल जाता है, विद्यमान महानिशीथ सूत्र की रचना विक्रमीय नवमी शती अथवा उसके बाद की सिद्ध होती है, क्योंकि इसमें प्रत्येक मुहूर्त के पाठ में “लग्न” शब्द प्रयुक्त हुआ है जो प्रस्तुत ग्रन्थ का निर्माण समय विक्रम की नवमी शती अथवा इसके परवर्ती समय को सूचित करता है । वर्तमान पद्धति के भारतीय पञ्चांग विक्रम की नवमी शती के उत्तरार्ध में बनने लगे और सर्व मान्य हुए थे और इस समय के बाद के लेखों, प्रशस्तियों में “लग्न” "वार " " दिन" शब्द प्रयुक्त होने लगे थे, पहले नहीं ।
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