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वर्ष बढती चली और अब तो टीकापात्र तक हो गई है। यदि इसका उचित संशोधन न किया गया तो भविष्य की जैन जनता इसका खुला विरोध करेगी, कतिपय विधानों को लक्ष्य करके आंचलिक, पौर्ण मिक, आदिगच्छों ने तो पहले ही से इस महानिशीथ को अप्रामणिक ठहरा दिया था, केवल तपागच्छ और खरतर गच्छ के अनुयायी अब तक महानिशीथ और इसके "उपधान' आदि विधानों को मानते हैं, परन्तु इस मान्यता को स्थायी बनाने के लिए समय संशोधन की मांग कर रहा है, समय रहते उपधान की प्रवृत्ति में समयोचित संशोधन न हुआ तो इस तपोविधान को दफनाने की मांग होगी, परिणाम जो होगा उसकी कल्पना की जा सकती है।
क्या महानिशीथोक्त उपधान विधि आगमोक्त है ?
महानिशीथ के तीसरे अध्ययन में उपधान तप का विधान लिखा है, कहा गया है कि 'अमुक प्रकार की योग्यता प्राप्त करने के बाद गृहस्थ धर्मी अमुक तपःकरण पूर्वक “पंच नमस्कार सूत्र" पढे, पहले पढ़ने वाला जिन प्रवचन का महान् आशातनाकारी बनता है।'
पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध पढने के बाद ईर्यापथिकीप्रतिक्रमण श्रुत आदि सूत्र पढने का विधान बताया है, लिखा है.---'पंच नमस्कार सूत्र सामायिकधारी वा असामायिकधारी दोनों पढ़ सकते हैं, पर सामायिकादि शेषश्रुत यावज्जीव सामायिकधारी हो वही पढ सकता है, सामायिकहीन नहीं। जैन गृहस्थ श्रावक के धर्माधिकार में आगम साहित्य में
"उपधान" का विधान नहीं हैसूत्रों में जहां जहां देशविरति श्रावक का वर्णन आया है, वहां कहीं भी "उपधानकारी" अथवा इस अर्थ का सूचक अन्य कोई भी विशेषण श्रावक के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ, इससे ध्वनित होता है कि
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