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________________ मानी जाती है, एक समारोह में तो १७०० मनुष्यों की संख्या भी हो चुकी है, उपधान का मौलिक आशय शुद्ध था जैसे श्रमणों के लिए योगोद्वहन पूर्वक सूत्र पढने का शास्त्रीय विधान था, वैसे ही प्रस्तुत नव्य महानिशीथ में श्रावक के लिए पंच मंगलसूत्र पढते समय उपवास और आयंबिल तपोविधान करना लिखा है। मूल शास्त्रों में जैन धर्मी गृहस्थ का नाम "उपासक" "श्रमणोपासक' अथवा 'श्रावक' लिखा है, जिसका अर्थ क्रमशः 'सेवा करने वाला, साधु की सेवा करने वाला, धर्म सुनने वाला' होता है, पूर्व काल में भी गृहस्थ जैन धर्म का आंशिक आराधन करता था और वह "देश विरत" अथवा "विरताविरत' कहलाता था, जैन साधुओं का वसतिवास होने के बाद साधु गृहस्थ दोनों के आचार मार्ग बहुत परिवर्तित हुए और उनकी मौलिकताएँ समय समय की आचरणारूढियों से आच्छादित प्रायः हो गई है । महानिशीथोक्त तपोविधान से उस समय गृहस्थ का जीवन अनेक अभिग्रहों से पलट सा जाता था, तब आज वही "उपधान" जीवन निर्वाह का साधन सा हो गया है। प्रभावना के नाम से जो सैकडों का माल बाँटा जाता है उसके लोभ से सैंकडों मनुष्य विशेष करके स्त्रीवर्ग उपधान की खबरें पूछा करता है । उपधान करने के बाद उन उपधानवाही मनुष्यों के जीवन में कोई नवीनता आती प्रतीत नहीं होती, आरंभ, समारंभ और व्रतपालन में कोई अन्तर नहीं पडता, प्रतिवर्ष लाखों रुपया खर्च होता है, परन्तु न तप तप समझकर किया जाता है, न स्थायी लाभ का कारण समझकर, खर्च करने वाला गृहस्थ आमंत्रण पत्रिकाओं में अपने बाप दादा और पुत्र पौत्रादि के २०-२५ नाम छपवाकर द्रव्य की सफलता मान लेता है और उपदेशक साधु महाराज डेढ़ दो महीनों तक चहल पहल और सैंकडों स्त्री पुरुषों के परिचय में रहकर संतुष्ट हो जाते हैं, यह उपधान की करामात नव्य महानिशीथ और बाद के सामाचारी ग्रन्थों ने फैलाई है, इसमें कोई शंका नहीं, यह प्रवृत्ति १० वीं से १४ शती तक मर्यादित और मौलिक थी, परन्तु सामूहिक रूप पकडने के बाद यह पद्धति प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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