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अध्ययनोंके अंत में "इति ब्रवीमि' लिखा है, अष्टम अध्ययन के अन्दर दो बार “इति ब्रवीमि' का स्थानापन्न प्राकृत पाठ है, इस उल्लेख के आधार से ही किसी ने अन्तिम तीन प्रकरणों को चूलिका मान लिया है जो वास्तविक नहीं है, मुनि प्रवर श्री पुण्यविजयजी द्वारा ताडपत्रीय प्रति के ऊपर से कराई गई प्रेस कॉपी के हमारे नोट में ३ स्थानों में 'त्तिबेमि" इस प्रकार के समाप्ति सूचक उल्लेख हुए हैं, जिनमें अष्टम अध्ययन की समाप्ति में एक स्थान पर "अणंत सोक्खं मोक्खं परिवसेज्ज त्तिबेमि'' यह लिखकर "महानिसीहस्स बिइया चूलिया” यह पुष्पिका लिखी है परन्तु प्रथम चूलिका कहां से प्रारम्भ हुई और कहां समाप्त हुई इसका पृथक् करण नहीं होता। हमारी राय में योगविधि के लेखानुसार ही महानिशीथ में पूर्वकाल में अध्ययन और उद्देशक होंगे परन्तु जब से प्राचीन महानिशीथ के स्थान में प्रस्तुत महानिशीथ का जन्म हुआ है तब से महानिशीथ के नाम से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अनेक अवैध बातों का प्रचार हुआ
और श्वेताम्बर समाज के गच्छों के बीच में क्लेश के बीजारोपण हुए हैं जो समाज को पर्याप्त छिन्न भिन्न कर अनेक पौराणिक तथा अनागमिक विधियों को जन्म दे चुके हैं।
उपधान का शब्दार्थ और आधुनिक प्रवत्तिआजकल हमारे समाज में उपधान तप की आबालवृद्ध तक प्रसिद्धि है और इसके निमित्ति लाखों रुपया प्रतिवर्ष खर्च होता है, प्रतिवर्ष अनेक स्थानों में सामूहिक रूप से उपधान तप कराया जाता है, पहले "उपधान' शब्द सामान्य तप' के अर्थ में प्रसिद्ध था और साधु के वर्णन में इसका उल्लेख आता था, "उपधान' में उपवास आयंबिल का ही तप होता था, विक्रम की पन्द्रहवीं शती में खरतर गच्छ के आचार्य श्री तरुणप्रभसूरि ने “तपोविधि' में परिवर्तन करके इसको सुकर बनाया, परिणामतः व्यक्तिगत आराधना से हटकर यह तप गृहस्थों में समूहों द्वारा किया जाने लगा, इसके आराधकों की संख्या एक एक समारोह में सौ दो सौ की तो सामान्य
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