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अझयणुद्दसा, तेसीइ महानिसीहंमि।। इय तेयालीस दिणा, सुयक्खंधे दुन्नि सव्व पणयाला ।
आउत्तवाणयं इइ, पणचत्ता याम नन्दिदुगं।" अर्थात्--- 'महानिशीथ' के ८ अध्यायों में पहला एकसर है, अर्थात् इसमें उद्देशक नहीं है, दूसरे अध्ययन के उद्देशक ६ हैं, तीसरे चौथे अध्ययनों के उद्देशक १६-१६ हैं, पांचवें अध्ययन के उद्देशक १२ हैं और अध्ययन ६-७-८ वें के उद्देशक क्रमश: ४-६-२० हैं, इस प्रकार महानिशीथ में ८ अध्ययन और ८३ उद्देशक हैं, प्रायः प्रतिदिन २-२ उद्देशक निकलते हैं अतः प्रथम अध्ययन और ८३ उद्देशकों के ४३ दिन और श्रुतस्कंधक के समुद्देश और अनुज्ञा के २ दिन मिलकर ४५ दिनों में महानिशीथ के योग समाप्त होते हैं, परन्तु वृद्धि आलोचना के दिन ७ मिलाने से आजकल महानिशीथ के आगाढ योग ५२ आयंबिलों से पूर्ण होते हैं, सं० १८६० में पं0 दीपविजयजी ने बडोदे के कतिपय श्रावकों की प्रार्थना से महानिशीथ का संक्षिप्त परिचय लिखा है, उसमें महानिशीथ के ६ अध्ययन और २ चूलिकाएं होने का लिखा है, हमारी एक नोट बुक में जो कागज की प्रति पर से लिखी हुई है, उसमें भी “बिइया चूलिया” ऐसा अंत में उल्लेख है, परन्तु महानिशीथ के सम्बन्ध में इस प्रकार के सभी उल्लेख गतानुगतिकता से लिखे गये हैं, महानिशीथ वास्तव में ८ अध्ययन और ८३ उद्देशात्मक ग्रन्थ हैं, यह बात “आयारविहि" नामक प्राचीन सामाचारी से सिद्ध हो चुकी है। ताडपत्रीय प्रति के अन्त में "इइ बिइया चूलिया” ये शब्द लिखे मिलते हैं, परन्तु ये शब्द प्रतिलेखक विशेष के हो सकते हैं, मूल संदर्भकार के नहीं, वस्तुत: महानिशीथ के प्रत्येक अध्ययन की समाप्ति पुष्पिका भी एक सी नहीं है, कहीं कहीं अध्ययनों के नाम मविशेषण लिखे हुए हैं, तब कतिपय विशेषण हीन, यह पद्धति मूलकार की नहीं, प्रति लेखक की होनी चाहिए, ऐसी हमारी मान्यता है । ६ अध्ययनों की समाप्ति में नाम पुष्पिका दी ही है, तब ७-८ इन दो
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