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नहीं है ! यद्यपि इसमें सामान्यप्रकार का उपदेश अवश्य है, पर कर्म के विपाक का फल वणित नहीं है और न इस प्रकार की कुछ योजना ही है कि उक्त नाम आवश्यक हो ।
(३) अध्ययन--महानिशीथ का तृतीय अध्ययन “अओ परं चउकण्णं, सुमहत्थाइसयं परं' इस सूत्र से प्रारम्भ होता है, इसकी प्रारम्भिक ७ गाथाओं में वाचना विधि का स्वरूप बताने के अतिरिक्त प्रस्तुत सूत्र के ८ अध्ययनों में किसमें कितने उद्देशक हैं इसका निरूपण किया है । गाथा ५-६वीं में २ से ८ वें तक के ७ अध्ययनों के उद्देशकों की संख्या का निरूपण किया है, संख्या तथा तपोनिरूपक गाथाएँ नीचे मुजब हैं ।
"बीयञ्झयणेऽम्बिले पञ्च, णवुई सा तहिं भवे । तइए सोलस उद्देसा, अठ तत्थेव अंबिले ।। जं तइए तं चउत्थे वि, पंचमंमि छायंबिले दस । छ दो सत्तमे तिषिण, अहमे आयंबिले दस ।।"
अर्थात्-'दूसरे अध्ययन में नव उद्देशक हैं और इनके पढने में पांच आयंबिल करने पड़ते हैं, तीसरे अध्ययन में सोलह उद्देशक हैं
और आठ आयंबिल, करने पड़ते हैं, महानिशीथ के चौथे अध्ययन में भी उद्देशक १६ और आयंबिल ८ होते हैं, पांचवां, छट्ठा, सातवां और आठवां इन ४ अध्ययनों में क्रमशः ६-२-३-१० आयंबिल होते हैं, इन चार अध्ययनों में उद्देशक कितने हैं यह नहीं लिखा, केवल तप लिखा है और प्रथम अध्ययन के उद्देशक तथा तपों में कुछ भी नहीं लिखा, यद्यपि महानिशीथ से उक्त बातों का खुलासा नहीं मिलता, पर सामाचारीगत योग विधि से सभी बातें स्पष्ट हो जाती है, "आयारविहि" में महानिशीथ के योगविधान का प्रतिपादन करने वाली निम्न लिखित गाथाएं उपलब्ध होती हैं:---
"पढमेग सरं १ नव २ सोल ३ सोल ४ बारस ५ चउ ६ छग ७ वीसा ८ ।
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