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विज्जा, ॐ नमो भगवओ, ॐ नमो वं, ॐ नमो नमो अठारससीलंग सहस्साहिठिठ्यस्स, णीसंगणिण्णियाणणीसल्लभयसत्तगत्तणसरण्ण सव्वदुक्खनिम्महणपरमनिव्वुइकरस्स णं, इमाए पवरविज्जाए सत्तहाउ अत्ताणयं अभिमंतेऊणं सोवेज्जा खंतो दंतो जिइंदिओ" (३०-१३) यह है।
प्रथमाध्ययन की समाप्ति में प्राकृत गद्य में लिखा है:
“एयस्स य कुलिहियदोसो न दायव्वो सुयहरेहि, किन्तु जो चेव एयस्स पुवायरिसो आसि तत्थेव कत्थइ सिलोगो, कत्थइ सिलोगद्धं, कत्थइ पयअक्खरं, कत्थइ अक्खरपंतिया, कत्थइ पण्णगपुठिठ्या, कत्थइ एग-बे-तिण्णि पण्णगाणि, एवमाइबहुगंथं परिगलियंति ।" अर्थात् इस सूत्र पुस्तक में दृष्टिगोचर होने वाली अशुद्धियों के सम्बन्ध में पुस्तक लेखक को दोष नहीं देना चाहिए, क्योंकि इस सूत्र की जो मूल प्रति थी उसीमें कहीं श्लोक, कहीं आधा श्लोक, कहीं पदों के अक्षर, कहीं पंक्तियां, कहीं पाने की एक पुठ्ठी, कहीं एक दो तीन पाने तक नष्ट हो जाने के कारण से सूत्र का अधिक भाग लुप्त हो गया था, इसी कारण से कहीं कहीं त्रुटियां प्रतीत होती हैं जो मौलिक हैं, प्रतिलेखक कृत नहीं।
(२) अध्ययन--“वण्णस्सइ गए जीवे" इस गाथा से दूसरा अध्ययन प्रारम्भ होता है, इस अध्ययन में गद्य पद्य दोनों हैं, प्रारम्भ में अधमाधम १, अधम२, विमध्यम ३, उत्तम४, उत्तमोत्तम५, और सर्वोत्तमोत्तम नामक ६ पुरुषों के लक्षण बताये हैं । स्त्रियों के सम्बन्ध में भी सविस्तर वर्णन किया है, अपकाय, तेजस्काय और मैथुन प्रतिसेवना से बचने के लिए साधुओं को बार बार उपदेश देकर लिखा है कि उक्त तीन प्रकार की प्रतिसेवना से साधु दुर्लभ बोधिक होता है, इन तीन प्रतिसेवनाओं से मुनि को सर्वथा दूर रहना चाहिए।
महानिशीथ के दूसरे अध्ययन का नाम “कर्मविपाक व्याकरण' है, इसकी समाप्ति में "उ०६" लिखा है, जो दूसरे अध्ययन के उद्देशकों की संख्या का सूचक है। इस अध्ययन का नाम अन्वर्थक
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