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स्निग्धपृथ्वी,
धूलयुक्त पृथ्वी, सचित्तधूलयुक्तपृथ्वी, मिट्टी वाली पृथ्वी, सचित्तपृथ्वी, जहाँ अनेक जीव, प्राग, अण्डे, ओस, पानी, कीडीनगरे, हरितादि रहे हुए हैं ऐसे दुनिक्षिप्त, दुर्बद्ध, अनिष्प्रकम्प, चलाचल स्थान में मलमूत्र का परित्याग करे ।
उक्त प्रकार की शिला पर उस प्रकार के मिट्टी के खोट पर, कीडों का घर बनी हुई लकड़ी पर, वली पर घर के उदुम्बर पर, भींत पर, शिला पर और अन्तरिक्ष जात में मल मूत्र का परित्याग करे |
पीठ, पाटिया, मंच, मंजिल और प्रासाद जो दुर्बद्ध हैं, दुनिक्षिप्त हैं, चलाचल हैं उन पर बैठकर मलमूत्र का त्याग करे ।
इस प्रकार करने वाला भिक्षु उद्घातित चातुर्मासिक परिहार स्थान को प्राप्त होता है ।
(१७) सप्तदशोद्द शक -- जो भिक्षु कौतूहल के खातिर किसी भी प्रकार के प्राणिजात को तृण, मुंज, काष्ठ, चर्म, वेत, रज्जु अथवा सूत के पाश से बाँधे, बाँधने वाले का अनुमोदन करे, तृण मुंजादि के पाशों से बन्धे हुए प्राणिजात को कौतूहल के निमित्त छोडे, जो भिक्षु कौतूहल के खातिर तृणों की माला, मुंज की माला, पिच्छों की माला, दांत की माला, सिंग की माला, काष्ठ की माला, पत्रों की माला, पुष्पों की माला, बीजों की माला, हरियाली की माला को धारण करे । जो भिक्षु कौतूहल के खातिर लोहे, आयसलोहे, जस्तालोहे, शीशक लोहे, रूप्यलोहे, सुवर्ण लोहे को बनावे, धारण करे । इन्हीं धातुओं के हार, अर्द्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, कटक, त्रुटितक, केयूर, कुण्डल, पट्ट, मुकुट, प्रलम्बसूत्र, सुवर्णसूत्रादि को रखे ।
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जो भिक्षु कौतूहल वंश हार, अर्द्धहारादि बनाकर पहिने |
जो भिक्षु कौतूहल के खातिर चमड़ों के दुशाले कम्बल, क्षौम, चीनांशुक, कनकखचितादि चर्म और वस्त्रों का उपयोग करे ।
जो श्रमणी पाद, काय, शरीरव्रण की सेवा शुश्रूषा, अन्य
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