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तीर्थिक, गृहस्थ से कराये, शारीरिक गडुं पिटकादि छेदाये, दीर्घ कक्षारोम, दीर्घ वस्तिरोम, दीर्घं चक्षुरोम आदि केटावे, दांत, ओष्ठादि साफ करावे, रंगावे, भोओं के रोम, पलकों के रोम, करावे इत्यादि शीर्ष द्वारिका तक की बातें श्रमणी के लिए लिखी हैं, जो सूत्र १५ से ६७ तक के सूत्रों में कही हुई हैं, निर्ग्रन्थी अन्य तीर्थिक गृहस्थों द्वारा कराये उसका प्रायश्चित्तविधान भी है ।
जो निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थी के पग, अन्य तीर्थिक अथवा गृहस्थ द्वारा प्रमार्जित करावे - यहाँ से लेकर संबाधन, म्रक्षण, उद्वर्तन, धावन, रंजन, कायप्रमार्जन, संबाधन, म्रक्षण, उद्वर्तन, धावन और रंजन, ऐसे ही कायिक व्रण का प्रमार्जन, संबाधन, स्रक्षण, उद्वर्तन, धावन और रंजन । इसी प्रकार गण्डपिटकादि को कटाना और उसमें से पीप, खून निकलवाना, उसे जलादि से धुलाना, लेप करवाना, फिर शीतोष्ण पानी से धोना, धूप से धूपित करना, कृमि निकलवाना, कक्षारोम कटवाना, श्मश्रुरोम कटवाना, वस्तिरोम कंटवाना, चक्षुरोम कटवाना, दांत विसवाना, दांत मंजवाना, रंगाना, ओष्ठ साफ करवाना, वैसे अधरोष्ठ रंगाना, म्रक्षण कराना आदि ।
दीर्घ अक्षिपत्र और आँख का प्रमार्जन करावे, म्रक्षण करावे, रंजन करावे, भुवों के रोमों को कटावे, आंखों का मल निकलवाए, शरीर के वेद मल आदि को साफ करावे, शीर्ष द्वारिका करावे ।
जो निर्ग्रन्थ अपने जैसे निर्ग्रन्थ को अवकाश होते हुए भी स्थान न दे, वैसे ही श्रमणी भी अपने बराबर योग्यता वाली श्रमणी को अवकाश होने पर भी स्थान न दे ।
जो भिक्षु माला पहिन अशन, पान, खादिम, स्वादिम ग्रहण करे ।
जो भिक्षु कोठी में रहा हुआ अशन, पान, खादिम, स्वादिम ग्रहण करे, कोठी को खोलकर दिया जाता ग्रहण करे, करावे ।
जो भिक्षु मिट्टी के ढक्कन खोलकर दिया जाने वाला अशन, पानादि ग्रहण करे |
जो भिक्षु जमीन पर रहा हुआ अशन, पान, ग्रहण करे ।
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