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जो भिक्षु स्वयं डरता है, दूसरों को डराता है, स्वयं विस्मित होता है, औरों को विस्मय में डालता है, स्वयं विपर्यास में पड़ता है, औरों को विपर्यास में डालता है । जो भिक्षु मुख को वर्णक रंग द्वारा सजाये । जो भिक्षु वैराज्य में और विरुद्ध राज्य में बार बार गमनागमन करे, जो भिक्षु दिन भोजन की निन्दा करे और रात्रि भोजन की प्रशंसा करे, दिन को अशन, पान, खादिम, स्वादिम ग्रहण करे, दिन में भोजन करे, दिन को ग्रहण कर रात्री में भोजन करे, रात्रि में ग्रहण करके दिन में भोजन करे, । रात्रि में ग्रहण कर रात्रि में भोजन करे, पर्युषित, अशन, पान, खादिम, स्वादिम का अणुमात्र अथवा चिपट भर अथवा बिंदु प्रमाण भी अनागाढ कारण में आहार करे ।
तरह तरह के भोजन को ले जाते देख शय्यातर के स्थान से अन्यत्र निवास करे, निवेदित पिण्ड का भोजन करे, यथाच्छन्द की प्रशंसा करे, उसकी वन्दना करे, अपनी जाति का हो वा अन्य जाति का, श्रावक हो वा अन्य, असमर्थ को प्रव्रज्या दे, उपस्थापना करावे, इसी प्रकार स्वजातीय, अन्य जातीय, उपासक, अनुपासक, अशक्त से वैयावृत्त्य करावे, सवस्त्र सवस्त्रों के, अवस्त्र सवस्त्रों के, सवस्त्र अवस्त्रों के मध्य में रहे, पर्युषित पीपर पीपर के चूर्ण, सोंठ, सोंठ के चूर्ण, कालानमक, पांसुक्षार का सेवन करे ।
पर्वत से गिरना, भृगुपात करना, वृक्ष से गिरना, जल प्रवेश करना, अग्नि में प्रवेश करना, शस्त्र से मरना, गृद्धों से अपने को नोंचवाकर तडपते मरना अथवा अन्य किसी प्रकार के मृत्यु की प्रशंसा करना, बाल मरण को ठीक समझे, वह अनुद्घातित चातुर्मासिक परिहार स्थान को प्राप्त होता है ।
(१२) द्वादशोद्द शक – जो भिक्षु करुणा के भाव से किसी सजीव प्राणी को बांस के पाश, सूत्र के पाश, मुञ्ज के पाश आदि से बंधे हुए को छोडे, अथवा बांधे ।
बार बार प्रत्याख्यान का भंग करे, प्रत्येक वनस्पति काय से संयुक्त आहार करे, सलोम चर्म को रखे, तृण-पुञ्ज, पलाल पुञ्ज,
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