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________________ यदि उसके मुंह में, हाथ में और पात्र में हो उसकी पारिठावणिया करे तो वह अतिक्रमण नहीं करता, यदि वह उसको खा जाय तो वह अतिक्रमण करता है । रात्री में अगर विकाल वेला में पानी के साथ अगर भोजन के साथ उद्गार मुंह में आए और उसको वापिस गिल जाय तो वह अतिक्रमण करता है, जो भिक्षु बीमार को सुनकर उसकी गवेषणा न करे अथवा उन्मार्ग से अथवा दूसरे मार्ग से गवेषणा के लिए जाय, रोगी के वैयावृत्त्य में तत्पर हुआ भिक्षु अपने लाभ से पहुंच न सके उसकी चिन्ता न करे, रोगी के वैयावृत्त्य के लिए प्रवृत्त भिक्षु ग्लान योग्य द्रव्य न मिलने पर उसकी खबर न दे, प्रावृष ऋतु में गांव गांव फिरे, वर्षावास निश्चित करके विहार करे, पर्युषणा के अयोग्य दिन में पर्युषणा करे, पर्युषणा के योग्य दिन में पर्युषणा न करे । पर्युषणा में गोलोम प्रमाण भी बाल रहने दे, पर्युषणा में इत्वरकालिक भी पाहार करे, अन्यतीथिक अथवा गृहस्थ को पर्युषणा कराये, प्रथम सवसरण के भीतर आये हुए वस्त्रों को ग्रहण करे, इस प्रकार की प्रतिसेवना करने वाला भिक्षु अनुद्धा तित-चातुर्मासिक परिहार स्थान को प्राप्त होता है । (११) एकादशोद्देशक:-जो भिक्षु लोह, ताम्र, जस्ता, कांसा, रूपा, सोना, सफेदसोना, मणि, दांत, सिंग, चर्म, वस्त्र, शंख, हीरा के पात्र करे, रक्खे और उनका उपयोग करे, लोहे के बन्धन करे, रक्खे और उनका उपयोग करे । जो भिक्षु अर्द्ध योजन की मर्यादा के बाहर पात्र के लिए जाये, अर्द्धयोजन से अधिक दूर से सप्रत्यवाय स्थान में लाकर दिया हुआ पात्र ग्रहण करे, धर्म का अवर्णवाद बोले, अधर्म की प्रशंसा करे । अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ के पग साफ करे अथवा प्रमार्जन करे, इस उद्देशक में सू० ११ से ६३ पर्यन्त का विधान तृतीयोद्देशक कथित सू० १८-६९ पर्यन्त के विधान के समान है, फरक मात्र इतना ही हैं कि तृतीय उद्देशक में भिक्षु स्वयं अपने लिए करता है, तब यहां अन्य तीर्थिक और गृहस्थों की सेवा करने पर प्रायश्चित्त विधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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