SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७ होकर अपरिमित कथा कहें, अपने गण की अगर परगण की निर्ग्रन्थी के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ, आगे चलता हुआ, पीछे रहता हुआ, जिसका मन संकल्पों से पराभूत हुआ है ऐसाचिन्ता शोक के समुद्र में प्रविष्ट होकर हाथ के ऊपर मुख रखा हुआ, आर्तध्यान वश होता हुआ विचरता है, अथवा कथा कहता है, अपनी जाति का हो अथवा अन्य हो, श्रावक हो, अथवा अन्य, उसे उपाश्रय के अन्दर आधी रात तक अथवा सारी रात तक रखे, उसको जाने के लिए न कहे, उसके लिए स्वयं बाहर जाए भीतर आए । जो भिक्षु मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रियों के धार्मिक उत्सवों में, अथवा और्ध्वदैहिक उत्सवों में, उत्तरशाला में, अथवा उत्तरघर में जाने वाले घोड़े, हाथियों के स्थानों में, मन्त्रणा स्थानों में, गुप्त स्थानों में, क्रीड़ास्थानों में जाकर अशनपानादि ग्रहण करे, एकत्रित किया हुआ दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, खोड, मिश्री अथवा अन्य किसी भी प्रकार का भोजन ग्रहण करे, उज्झितपिंड, संसृष्टपिण्ड, कृपगपिंड, अनाथपिंड और याचकपिण्ड को ग्रहण करे, वह भिक्षु अनुद्घातित चातुर्मासिक परिहार स्थान को प्राप्त होता है । (६) नवम उद्द ेशक :- जो भिक्षु राजपिंड ग्रहण करे अथवा उसका भोजन करे, राजा के जनाने में प्रवेश करे और राजा के अन्तःपुर में रहने बाले पुरुष को कहे - हे आयुष्मन् ! हमको राजा के महलों में आने का अधिकार नहीं है, तुम यह पात्र लेकर जाओ और अन्तःपुर से जो अशन, पान, खादिम, स्वादिम मिले वह लाकर हमको दे दो, ऐसा कहे, अथवा राजान्तःपुरीय पुरुष को लाकर देने का कहे और वह उसका स्वीकार करे । मूर्द्धाभिषिक्त राजा के द्वारपालों का भोजन, पशुभक्त, मृतक भक्त, बालभक्त, कृतकभक्त, रयभक्त, कान्तरभक्त, दुर्भिक्ष भक्त, द्रमकभक्त, ग्लानभक्त, वद्दलियाभक्त, अतिथिभक्त आदि भक्त ग्रहण करे । जो भिक्षु मूर्द्धाभिषिक्त राजा के छः दोषायतनों को बिना पूछे, ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy