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________________ में स्त्री जाति को वश में करने की प्रवृत्तियों का वर्णन किया है और ऐसा करने वाले भिक्षु को अनुद्घातित चातुर्मासिक परिहार स्थान की आपत्ति बताई है। (७) सप्तमोद्देशक:-सप्तम उद्देशक में भी स्त्री जाति को अनुकूल करने के लिए तरह तरह की वनस्पति, शंख आदि की मालाएँ बनाने और धारण के अपराधों के प्रायश्चित्त, लोह, ताम्र, जस्ता, शीशा के आभूषण बनाये रखने के प्रायश्चित्त लिखे हैं, रूपा, सोना आदि के आभूषण बनाने और धारण करने, हार, अर्द्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली कड़े त्रुटितक केयूर, कुण्डल, पट्ट, मुकुट, प्रलम्बसूत्र अथवा सुवर्णसूत्र बनाने, रखने और पहनने के अपराधों के प्रायश्चित्तों का वर्णन है, बढिया चमडे, ऊनके बने हुए कम्बल, दुशाले, काले, नीले, श्यामादि अनेक प्रकार के चर्म के वस्त्र, ऊँट, व्याघ्र आदि के बालों से बने हुए वस्त्र, क्षौम, दुकूल, चीनांशुक, सुवर्ण के तारसे बने हुए बढ़िया वस्त्र तथा आभूषणों को रक्खे या बापरे, स्त्रीजाति को, आकृष्ट करने के लिए उनके शारीरिक अंगों का स्पर्श करें, शीश दुवारिया करे, स्त्री को आकर्षण करने के लिए अन्यान्य अनेक प्रकार की प्रवृत्तियां करे, अपने पास की कोई भी वस्तु उसको दे, किसी भी प्रकार का इंगिताकार बतावे, उस भिक्षु को चातुर्मासिक अनुद्घातित परिहार स्थान प्राप्त होता है । (८) अष्टमोद्देशक:-जो भिक्षु मुसाफिरखानों में, आरामगृहों, उद्यानों में, उद्यानगृहों में, निर्याण गृहों में, अट्टालिकाओं में, आकरों में, द्वारों में, जल स्थानों में, जल मार्गों में, शून्य धरों में, कूटागारों में, कोष्ठागारों में, पाठशालाओं में, गौशालाओं में, महाकुल में, अकेला स्त्री के साथ भ्रमण करें, स्वाध्याय करें, अशनपानादि आहार करे, मलमूत्र त्यागे, अथवा अन्य कोई भी अनार्य निष्ठुर साधु के योग्य न हो ऐसी कथा कहे, रात्रि में अथवा विकाल समय में स्त्रियों के बीच बैठकर स्त्री से संसक्त होकर, स्त्री से परिवृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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