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"संकरजडमउट विभूसरणस्स तरणामसरिणामस्स । तस्स सुतेणेस कता, विसेसचुणी मिसीहस्स ||
अर्थात् – 'शंकर जटामुकुट के विभूषण चन्द्रमा के सदृश जिसका नाम है, उसके पुत्र ने यह निशीथ की विशेष चूर्णि बनाई ।
इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि निशीथ विशेष चूर्णि के कर्त्ता आचार्य जिनदास गणि के पिता का नाम "चंद्र" था, प्राचीन काल में इस प्रदेश में ऐसे नाम व्यवहृत होते थे ।
इसी प्रकार चूर्णिकार ने १५ वें उद्देशक के अन्त में एक गाथा लिखकर अपनी माता का नाम सूचित किया है
"रविकर मभिधारणऽक्खर सत्तमवग्गंत अक्खरजुएखं । णामं जस्सित्थीए, सुतेा तस्सेस कया चुरणी ।। "
उपर्युक्त गाथा के रवि, कर, अभिधा इन शब्दों का अन्तिम अक्षर लेने से "विरधा" और इसके साथ "य" वर्ग का अन्तिम "व" जोड़ने से जिनदास गणि की माता का नाम “विरधाव " ऐसा निष्पन्न होता है ।
इस प्रदेश में आजकल भी विरधाव अथवा विरधादे आदि स्त्रियों के नाम दिये जाते हैं ।
निशीथ के २० वें उद्देशक की चूर्णि की समाप्ति में ग्रन्थकार ने अपने नाम और उपाधि को सूचित करने वाली दो गाथाएँ दी हैं
"ति च पण श्रमवग्गे, ति पराग ति विग अवखरा य तेसिं । ततिय पढमेहिं दुपढम- सर जुएहिं गामं कयं जस्स || गुरुदिणं च गणित्तं, महत्तरतं च तस्स सुद्धेहिं । ते कसा चुरणी, विसेसनामा निसीहस्स ।"
'तीसरे, चौथे, पांचवें और आठवें वर्ग के तीसरे पांचवें तीसरे
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